Friday 18 July 2014

समाज में मीडिया की भूमिका

समाज में मीडिया की भूमिका

समाज में मीडिया की भूमिका पर बात करने से पहले हमें यह जानना चाहिए कि मीडिया क्या है? मीडिया हमारे चारों ओर मौजूद है, टी.वी. सीरियल व शौ जो हम देखते हैं, संगीत जो हम रेडियों पर सुनते हैं, पत्र एवं पत्रिकाएं जो हम रोज पढ़ते हैं। क्योंकि मीडिया हमारे काफी करीब रहता है। हमारे चारों ओर यह मौजूद होता है। तो निश्चित सी बात है इसका प्रभाव भी हमारे ऊपर और हमारे समाज के ऊपर पड़ेगा ही।

लोकतंत्र के चार स्तंभ माने जाते हैं, विधायिका, कार्यपालिका, न्यायपालिका और पत्रकारिता-यह स्वाभाविक है कि जिस सिंहासन के चार पायों में से एक भी पाया खराब हो जाये तो वह रत्न जटित सिंहिसन भी अपनी आन-बान-शान गंवा देता है।

किसी ने शायद ठीक ही कहा है “जब तोप मुकाबिल हो, तो अखबार निकालो” हमने व हमारे अतीत ने इस बात को सच होते भी देखा है। याद किजिए वो दिन जब देष गुलामी की जंजीरों में जकड़ा हुआ था, तब अंग्रेजी हुकूमत के पांव उखाड़ने देष के अलग-अलग क्षेत्रों में जनता को जागरूक करने के लिये एवं ब्रिटिष हुकूमत की असलियत जनता तक पहुंचाने के लिये कई पत्र-पत्रिकाओं व अखबारों ने लोगों को आजादी के समर में कूद पड़ने एवं भारत माता को आजाद कराने के लिए कई तरह से जोष भरे व समाज के प्रति अपने उत्तरदायित्वों का बाखूबी से निर्वहन भी किया। तब देष के अलग-अलग क्षेत्रों से स्वराज्य, केसरी, काल, पयामे आजादी, युगान्तर, वंदेमातरम, संध्या, प्रताप, भारतमाता, कर्मयोगी, भविष्य, अभ्युदय, चांद जैसे कई ऐसी पत्र-पत्रिकाओं ने सामाजिक सरोकारों के बीच देषभक्ति का पाठ लोगों को पढ़ाया और आजादी की लड़ाई में योगदान देने हेतु हमें जागरूक किया।

अमेरिका के तीसरे राष्ट्रपति थॉमस जेफरसन ने कहा था, ''यदि मुझे कभी यह निश्चित करने के लिए कहा गया कि अखबार और सरकार में से किसी एक को चुनना है तो मैं बिना हिचक यही कहूंगा कि सरकार चाहे न हो, लेकिन अखबारों का अस्तित्व अवश्य रहे।" एक समय था जब अखबार को समाज का दर्पण कहा जाता था समाज में जागरुकता लाने में अखबारों ने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है। यह भूमिका किसी एक देश अथवा क्षेत्र तक सीमित नहीं है, विश्व के तमाम प्रगतिशील विचारों वाले देशों में समाचार पत्रों की महती भूमिका से कोई इंकार नहीं कर सकता। मीडिया में और विशेष तौर पर प्रिंट मीडिया में जनमत बनाने की अद्भुत शक्ति होती है। नीति निर्धारण में जनता की राय जानने में और नीति निर्धारकों तक जनता की बात पहुंचाने में समाचार पत्र एक सेतु की तरह काम करते हैं। समाज पर समाचार पत्रों का प्रभाव जानने के लिए हमें एक दृष्टि अपने इतिहास पर डालनी चाहिए। लोकमान्य तिलक, महात्मा गाँधी और पं. नेहरू जैसे स्वतंत्रता सेनानियों ने अखबारों को अपनी लड़ाई का एक महत्वपूर्ण हथियार बनाया। आजादी के संघर्ष में भारतीय समाज को एकजुट करने में समाचार पत्रों की विशेष भूमिका थी। यह भूमिका इतनी प्रभावशाली हो गई थी कि अंग्रेजों ने प्रेस के दमन के लिए हरसंभव कदम उठाए। स्वतंत्रता के पश्चात लोकतांत्रिक मूल्यों की रक्षा और वकालत करने में अखबार अग्रणी रहे। आज मीडिया अखबारों तक सीमित नहीं है परंतु इलेक्ट्रॉनिक मीडिया और वेब मीडिया की तुलना में प्रिंट मीडिया की पहुंच और विश्वसनीयता कहीं अधिक है। प्रिंट मीडिया का महत्व इस बात से और बढ़ जाता है कि आप छपी हुई बातों को संदर्भ के रूप में इस्तेमाल कर सकते हैं और उनका अध्ययन भी कर सकते हैं। ऐसे में प्रिंट मीडिया की जिम्मेदारी भी निश्चित रूप से बढ़ जाती है।

अपनी शुरूआत के दिनों में पत्रकारिता हमारे देष में एक मिषन के रूप में जन्मी थी। जिसका उद्ेष्य सामाजिक चेतना को और अधिक जागरूक करने का था, तब देष में गणेष शंकर विद्यार्थी जैसे युवाओं की सामाजिक, सांस्कृतिक एवं राजनीतिक आजादी के लिये संघर्षमयी पत्रकारिता को देखा गया, कल के पत्रकारों को न यातनाएं विचलित कर पाती थीं, न धमकियां। आर्थिक कष्टों में भी उनकी कलम कांपती नहीं थी, बल्कि दुगुनी जोष के साथ अंग्रेजों के खिलाफ आग उगलती थी, स्वाधीनता की पृष्ठ भूमि पर संघर्ष करने वाले और देष की आजादी के लिये लोगों मंे अहिंसा का अलख जगाने वाले महात्मा गांधी स्वयं एक अच्छे लेखक व कलमकार थे। महामना मालवीय जी ने भी अपनी कलम से जनता को जगाने का कार्य किया। तब पत्रकारिता के मायने थे देष की आजादी और फिर आजादी के बाद देष की समस्याओं के निराकरण को लेकर अंतिम दम तक संघर्ष करना और कलम की धार को अंतिम दम तक तेज रखना। जब हमारा देश पराधीनता की बेडिय़ों में जकड़ा हुआ था उस समय देश में इने-गिने सरकार समर्थक अखबार थे जो सरकारी धन को स्वीकार करते रहते थे। अंक प्रति आय जनता में भी अच्छी भावना नही थी। इन दिनों उन पत्रों को अधिक लोकप्रियता मिली जो राष्ट्रीय विचारधाना के थे और जनता में राष्ट्रीय चेतना पैदा करने के लिए प्रयत्नशील थे।

दरअसल वह एक जुनून है। सच्चा पत्रकार बिना अपने परिवार, धन एवं ऐश्वर्य की परवाह किये बिना मर-मिटने को तैयार रहता है। उसे कोई डिगा नहीं सकता। पूंजपति, सरकार व सामाजिक दीवारों, बंधनों को फांद कर वह अपने उद्देश्य की पूर्ति अब भी करता है। पत्रकारिता एक समर्पित दृष्टि और जीवन पद्धति है, कोई व्यक्ति विशेष या खिलवाड़ नहीं है। यह समर्पित दृष्टि तथा जीवन पद्धति जिसमें होती है, वही सच्चा पत्रकार है।

देश की स्वतंत्रता के बाद सामाजिक, राजनीतिक और आर्थिक ढांचे में जहां बुनियादी परिवर्तन आये, वहीं पत्रकारिता के क्षेत्र में भी व्यापक बदलाव आया। इसने एक प्रच्छन्न उद्योग का स्वरूप ग्रहण कर लिया। जिसके कारण उद्योगों की समस्त अच्छाईयों के साथ इसको विकृतियां भी पत्रकारिता में आने लगीं। इस तरह निष्पक्ष पत्रकारिता का पूरा आदर्श और ढांचा ही चरमराने लगा।

समाचारपत्र किसी कारखाने के उत्पाद नहीं होते हैं लेकिन पिछले एक दशक से उन्हें एक उत्पाद भर बनाये जाने की साजिश की जा रही है। अखवारों के पन्ने रंगीन होते जा रहे हैं और उनमें विचार-शून्यता साफ झलकती है। समाचारपत्रों में न सिर्फ विचारों का अभाव है बल्कि उसके विपरीत उन्हें फिल्मों, लजीज व्यंजन और सेक्स संबंधित ऐसी तमाम सामग्री बहुतायत में परोसी जाने लगी है जो मनुष्य के जीवन में पहले बहुत अहम स्थान नहीं रखती थीं। यानी समाचारपत्रों के माध्यम से एक ऐसी काल्पनिक दुनिया का निर्माण किया जा रहा है जिसका देश की ९० प्रतिशत से अधिक जनता का कोई सरोकार नहीं है। लेकिन चूंकि ऐसी खबरों को प्रमोट और स्पांसर करने वालों की भीड़े है और अखबार को विज्ञज्ञपन चाहिए जिसके बिना विचार भी पाठकों तक नहीं पहुंच सके हैं, इसलिए अखबारों को उनके सामने सिर झुकाने के अलावा कोई विकल्प नहीं बचता है।

जब भी मीडिया और समाज की बात की जाती है तो मीडिया को समाज में जागरूकता पैदा करने वाले एक साधन के रूप में देखा जाता है, जो की लोगों को सही व गलत करने की दिषा में एक प्रेरक का कार्य करता नज़र आता है। जहां कहीं भी अन्याय है, शोषण है, अत्याचार, भ्रष्टाचार और छलना है उसे जनहित में उजागर करना पत्रकारिता का मर्म और धर्म है। हर ओर से निराश व्यक्ति अखबार की तरफ आता है। अखबार ही उनकी अन्धकारमय जिन्दगी में उम्मीद की आखिरी किरण है। अखबारों को पीडि़तों का सहारा बनना चाहिए। समाचारपत्र जगत की यह तस्वीर आम पाठक देखता है। यहां यह कहना असंगत नहीं होगा कि अखबार अपनी जिस जिम्मेदारी का निर्वाह कर रहे हैं वह अति सीमित है। वास्तव में हमने हाथी की पूंछ को अपने सिर पर रखकर यह मान लिया है कि हमने पूरा हाथी ही उठा लिया है।

 युग चेतना ही पत्रकारिता का समृद्ध करती है। समाज, राष्ट के सामने जो विषम स्थितियां हैं उनका सम्यक विवेचन प्रस्तुत करके आम सहमति के विन्दु तक पहुंचने में पत्रकार और समाचार पत्र एक मंत्र प्रस्तुत करते हैं। युगीन समस्याओं, आशाओं और आकांक्षाओं पर मनन-चिंतन करके पत्रकार-समाचार पत्र आमजन में संतुलित चिंतन-चेतना, रचनात्मक विकास करते हैं। पत्रकार घटनाओं का मानवीय संस्करण प्रस्तुत करता है। उसे पूर्वाग्रहों से मुक्त हो कर कार्य करना होता है। उसकी प्रतिबद्धता समाचारों से है। एक चिकित्सक की भांति वह घटनाओं की नाड़ी पकड़ता है, फिर उसका निदान भी बताया है। पत्रकारिता जन-जन को जोडऩे का काम करती है। समाज के विभिन्न वर्गों में आपसी समझ के भाव को विकसित करते हुए एक मेल-जोल की संस्कृति के विकास में सहायक बनती है। जो पत्र और पत्रकार इसके विपरीत कार्य करते हैं उन्हें आप पीत पत्रकारिता करने वालों की श्रेणी में डाल सकते हैं।

मीडिया व पुलिस के उद्देश्य दरअसल जनहित ही हैं। ऐसे में पारदर्शिता और प्रोफेशलिज्म से सही लक्ष्य पाए जा सकते हैं। मीडिया समाज की आवाज शासन तक पहुंचाने में उसका प्रतिनिधि बनता है। अब सवाल यह उठता है कि वाकई मीडिया अथवा प्रेस जनता की आवाज हैं। आखिर वे जनता किसे मानते हैं? उनके लिए शोषितों की आवाज उठाना ज्यादा महत्वपूर्ण है अथवा क्रिकेट की रिर्पोटिंग करना, आम आदमी के मुद्दे बड़े हैं अथवा किसी सेलिब्रिटी की निजी जिंदगी ? आज की पत्रकारिता इस दौर से गुजर रही है जब उसकी प्रतिबद्धता पर प्रश्रचिन्ह लग रहे हैं। समय के साथ मीडिया के स्वरूप और मिशन में काफी परिवर्तन हुआ है। अब गंभीर मुद्दों के लिए मीडिया में जगह घटी है। अखबार का मुखपृष्ठ अमूमन राजनेताओं की बयानबाजी, घोटालों, क्रिकेट मैचों अथवा बाजार के उतार-चढ़ाव को ही मुख्य रूप से स्थान देता है। जिस पेज पर कल तक खोजी पत्रकारों के द्वारा ग्रामीण पृष्ठभूमि की समस्या, ग्रामीणों की राय व गांव की चौपाल प्रमुखता से छापी जाती थी, वहीं आज फिल्मी तरानों की अर्द्धनग्न तस्वीरें नज़र आती हैं। आप दिल्ली जैसे शहरों में ही देख लीजिए। चाहे आप मेट्रो में यात्रा कर रहें हो या दिल्ली परिवहन निगम की बसों में या अपने वाहन से। लड़कियां कहीं भी सुरक्षित नहीं है। उस पर मीडिया ऐसे मामलों को इस तरह से उठाता है जैसे कोई फिल्मी मसाला हो। उसे बस अपने टीआरपी की चिंता रहती है। महिलाओं/लड़कियों/बच्चियों के साथ हो रहे दुर्व्यवहार को मीडिया में उछालने की प्रवृति पर अंकुश लगाए जाना चाहिए। हां, यह सही है कि बगैर मीडिया में ख़बर आए कोई कार्यवायी भी नहीं होती है लेकिन ऐसे मामले पर मीडिया कर्मी खासकर टेलीविजन में एक बहस का दौर चल पड़ता है उसे लगता है कि टीआरपी बढ़ाने का इससे बेहतर मौका और कोई नहीं हो सकता है और वो ऐसे मौकों को हाथ से जाने नहीं देना चाहती है। इस तरह की प्रवृति पर मीडिया को लगाम लगाने की सोचनी चाहिए। अपनी टीआरपी के लिए किसी की आबरू से खेलना अच्छी बात नहीं है।

  आधुनिकता व वैष्वीकरण के इस दौर में इन पत्र-पत्रिकाओं व नामी-गिरामी न्यूज चैनलों को ग्रामीण परिवेष से लाभ नहीं हो पाता और सरोकार भी नहीं है। इसलिए वे धीरे-धीरे इससे दूर भाग रहे हैं और औद्योगीकरण के इस दौर में पत्रकारिता ने भी सामाजिक सरोकारों को भुलाते हुए उद्योग का रूप ले लिया है।   गंभीर से गंभीर मुद्दे अंदर के पृष्ठों पर लिए जाते हैं तथा कई बार तो सिरे से गायब रहते हैं । समाचारों के रूप में कई समस्याएं जगह तो पा लेती हैं परंतु उन पर गंभीर विमर्श के लिए पृष्ठों की कमी हो जाती है। मीडिया की तटस्थता स्वस्थ लोकतंत्र के लिए अत्यंत घातक है।

मीडिया और सरकार के बीच के रिश्ते हमेशा अच्छे नहीं हो सकते क्योंकि मीडिया का काम ही है सरकारी कामकाज पर नज़र रखना. लेकिन वह सरकार को लोगों की समस्याओं, उनकी भावनाओं और उनकी मांगों से भी अवगत कराने का काम करता है और यह मौक़ा उपलब्ध कराता है कि सरकार जनभावनाओं के अनुरूप काम करे.

आज के इस दौर में पत्रकारिता कहां पर है और आमजनों को उनकी समस्या का हल कौन देगा यह बताने वाली पत्रकारिता अपने आप से आज यह सवाल पूछ रही है कि मैं कौन हूँ? आज देष आतंकवाद, नक्सलवाद जैसी गंभीर समस्याओं से जूझ रहा है, लेकिन इससे निपटने के लिये आमजनों को क्या करना चाहिए, सरकार की क्या भूमिका हो सकती है, सहित कई मुद्दों पर मीडिया आज मौन रूख अख्तियार किये हुये है। लेकिन वहीं दूसरी ओर आतंकी गतिविधियों से लेकर नक्सली क्रूरता को लाइव दिखाने में भी यह मीडिया पीछे नहीं है, यहां तक की आज सर्वप्रथम किसी खबर को दिखाने की होड़ में मीडिया के समक्ष आतंकी व नक्सली हमला के तुरंत बाद ही हमला करने वाले कमाण्डर व अन्य आरोपियों के फोन व ई-मेल तक आ जाते हैं। गौर करने वाली बात यह है कि बार-बार व प्रतिदिन इस समाचार को दिखाने व छापने से फायदा किसका होता है, आमजनता का, पुलिस का, नक्सली व आतंकी का या फिर मीडिया घरानों का। निष्चित रूप से इसका फायदा मीडिया व इन देषद्रोही तत्वों (आतंकी व नक्सली) को होता है, जिन्हें बिना किसी कारण से बढ़ावा मिलता है, क्यांेकि बार-बार इनको प्रदर्षित करने से आमजनों व बच्चों में संबंधित लोगों के खिलाफ खौफ उत्पन्न हो जाता है और ये असामाजिक तत्व चाहते भी यही हैं। इसलिये आज जरूरी है कि मीडिया और इसको चलाने वाले ठेकेदारों को यह तय करना होगा, कि मीडिया ने सामाजिक सरोकारों को दूर करने में कितनी कामयाबी हासिल की है, यह उन्हें खुद ही देखना व समझना होगा। ऐसा भी नहीं है कि मीडिया ने सामाजिक सरोकारों को एकदम से अलग कर दिया है लेकिन लगातार मीडिया की भूमिका कई मामलों में संदिग्ध सी लगती है। कई विषयों जहां पर उन्हें न्याय दिलाने की जरूरत होती है एवं लोगों को मीडिया से यह अपेक्षा होती है, कि मीडिया के द्वारा उनकी मांगों व समस्याओं पर विषेष ध्यान देते हुए समस्या का समाधान किया जायेगा, ऐसे कई मौकों पर मीडिया की भूमिका से लोगों को काफी असहज सा महसूस होता है। कभी-कभी तो ऐसा भी महसूस किया जाता है कि कुछ मीडिया घराना मात्र किसी एक व्यक्ति, पार्टी व संस्था के लिये ही कार्य कर रही है, अतः मीडिया को एक बार फिर से ठीक उसी तरह निष्पक्ष होना पड़ेगा, जिस तरह की आजादी के पहले व अभी कुछ आंदोलनों में जनता के साथ देखा गया।


इलेक्ट्रॉनिक मीडिया में ब्रेकिंग न्यूज की होड़ में यह अनुमान लगाना कठिन हो जाता है कि सच्चाई क्या है। आज प्रिंट मीडिया को इलेक्ट्रॉनिक मीडिया से तगड़ी प्रतिस्पर्धा का सामना करना पड़ रहा है। इलेक्ट्रॉनिक मीडिया अपने स्वरूप और सामथ्र्य की वजह से दर्शकों को 24 घंटे उपलब्ध है। टीआरपी की चाह में टीवी न्यूज चैनल सिर्फ गंभीर विमर्शों तक सीमित नहीं हैं अपितु वे फिल्मी चकाचौंध, सास-बहू के किस्सों, क्रिकेट की दुनिया के अलावा अंधविश्वासों तक को अपने प्रोग्राम में काफी स्थान देते हैं। ऐसे में प्रिंट मीडिया का भी स्वरूप बदलने लगा है और अखबारों के पन्ने भी झकझोरने के बजाय गुदगुदाने का काम करने लगे हैं। एक ओर समाचार-पत्र के परिशिष्ट टी.वी. के समान ही सामग्री देने लगे हैं, वहीं दूसरी ओर, समाचार पत्रों की साख में भी उतार आ गया। साख आज मुद्दा ही नहीं रह गया लगता है। आज तो किसी भी तरह व्यापार होना चाहिए। चटपटी सामग्री की उपयोगिता का प्रश्न समाप्त-सा होने लगा है। इससे बड़े-बड़े समाचार-पत्रों की प्रभावशीलता घटने लगी। सामाजिक मुद्दों को उठाने की चिन्ता घट गई। आज अंगे्रजी के अखबारों में भारतीयता को ढूंढ लें। इस परिवर्तन का श्रेय चूंकि इलेक्ट्रानिक्स मीडिया को है, सइी से इस दौर की शुरूआत हुई है, अत: स्वयं मीडिया भी इतना बदल गया है कि लोकतंत्र का चौथा पाया हिलता हुआ नजर आने लगा है।
 मीडिया मालिकों की पूंजीवादी सोच के अलावा पत्रकारों की तैयारी भी एक बड़ा मसला है। एक समय था जब पत्रकार होना सम्मानजनक माना जाता था। बड़े-बड़े साहित्यकारों ने पत्रकारिता के क्षेत्र में भी अपनी लेखनी के झंडे गाड़े। प्रेमचंद, माखनलाल चतुर्वेदी, महादेवी वर्मा से लेकर अज्ञेय, धर्मवीर भारती, कमलेश्वर आदि दिग्गज साहित्यकारों ने एक पत्रकार के रूप में भी सामाजिक बोध जगाने के अपने दायित्व का निर्वहन किया और राजनैतिक पत्रकारिता से ज्यादा रुचि मानवीय पत्रकारिता में दिखाई। कहने का तात्पर्य यह है कि उस दौर के पत्रकारों में विषय की, समाज की गहरी समझ थी, उसे लेखन रूप में प्रस्तुत करने के लिए भाषा और भावना थी तथा सामाजिक प्रतिबद्धता थी। आज ये गुण कहीं खो से गए हैं। निजी हितों का दबाव इतना बढ़ गया है कि पत्रकारों की प्रतिबद्धता पल-पल बदलती रहती है। अपने कार्य के प्रति समर्पण में भी कमी नजर आती है। कहीं वे घटनास्थल तक पहुंच नहीं बना पाते तो कई बार उन्हें घटनाओं को सही परिप्रेक्ष्य में समझना नहीं आता तो कई बार भाषा के गलत इस्तेमाल से समाचार का भाव ही बदल जाता है।

खबरों में नमक-मिर्च लगाकर पेश करना और उसे चटखारेदार बनाने के प्रयासों में पत्रकारिता भटक जाती है। पुलिस जहां तथ्यों को दबाने के प्रयासों में होती है वहीं पत्रकार की कोशिश चीजों को अतिरंजित करके देखने की होती है, जबकि दोनों गलत है। आज भी पुलिस को देखकर समाज में भय व्याप्त होता है। इस छवि को बदलने की जरूरत है। मीडिया इसमें बडी भूमिका निभा सकता है। पत्रकारिता की भूमिका मानवाधिकारों तथा लोकतंत्र की रक्षा के लिए बहुत महत्व की है। यह एक कठिन काम है। पारदर्शिता को पुलिस तंत्र पसंद नहीं करता पर बदलते समय में हमें मीडिया के सवालों के जबाव देने ही होंगें। आज जबकि समूचे प्रशासनिक, राजनीतिक तंत्र से लोगों की आस्था उठ रही है तो इसे बचाने की जरूरत है। सुशासन के सवाल आज महत्वपूर्ण हो उठे हैं। ऐसे में सकारात्मक वातावरण बनाने की जरूरत है।

आधी अधूरी तैयारी व सतही समझ से मुद्दे कमजोर पड़ जाते हैं और उनके समाधान की राह कठिन हो जाती है। यदि मीडिया को समाज को राह दिखानी है तो स्वयं उसे सही राह पर चलना होगा । एक सफल लोकतंत्र वही होता है जहां जनता जागरुक होती है। अत: सुशासन के लिए मीडिया का कर्तव्य बनता है कि वह लोगों का पथ प्रदर्शन करे। उन्हें सच्चाई का आइना दिखाए और सरकार को जनता के प्रति जवाबदेह बनाए। अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता जो हमारा मूल मानवाधिकार है, वह सिर्फ भाषण देने तक सीमित नहीं है बल्कि उसका उद्देश्य समाज में उचित न्याय का साम्राज्य स्थापित करना होना चाहिए। इसके लिए आवश्यक है कि हर कीमत पर हर व्यक्ति के मानवाधिकारों की रक्षा की जाए और उनका सम्मान किया जाए। मानवाधिकारों की रक्षा के लिए सामाजिक बोध जगाने में प्रिंट मीडिया की स्वतंत्रता इसी से सार्थक होगी ।

संविधान में उल्लेखित मौलिक अधिकार मोटे तौर पर मानवाधिकार ही हैं। हर व्यक्ति को स्वतंत्रता व सम्मान के साथ जीने का अधिकार है चाहे वह किसी भी धर्म, जाति, वर्ग का क्यों न हो। लोकतंत्र में मानवाधिकार का दायरा अत्यंत विशाल है। राजनैतिक स्वतंत्रता, शिक्षा का अधिकार, महिलाओं के अधिकार, बाल अधिकार, निशक्तों के अधिकार, आदिम जातियों के अधिकार, दलितों के अधिकार जैसी अनेक श्रेणियां मानवाधिकार में समाहित हैं। यदि गौर किया जाए तो कुछ ऐसी ही विषयवस्तु पत्रकारिता की भी है। पत्रकारों के लिए भी मोटे तौर पर ये संवेदनशील मुद्दे ही उनकी रिपोर्ट का स्रोत बनते हैं।  भारत जैसे देश में जहां गरीबी व अज्ञानता ने समाज के एक बड़े हिस्से को अंधकार में रखा है, वहां मानवाधिकारों के बारे में जागरुकता जगाने में, उनकी रक्षा में तथा आम आदमी को सचेत करने में अखबार समाज की मदद करते हैं। आम आदमी को उसके अधिकारों के बारे में शिक्षित करने में मीडिया निश्चित रूप से महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है। सूचना के प्रचार-प्रसार से लेकर आम राय बनाने तक में मीडिया अपने कर्तव्य का भली-भांति वहन करता है। एक विकासशील देश में जहां मानवाधिकारों का दायरा व्यापक है, वहां मीडिया के सहयोग के बिना सामाजिक बोध जगाना लगभग असंभव है।

मीडिया ट्रायल -- ऐसी प्रवृत्तियां मीडिया की विश्वसनीयता पर सवाल खड़े करती हैं। अपराध और अपराधीकरण को ग्लैमराइज्ड करना कहीं से उचित नहीं कहा जा सकता है।


भोपाल। माखनलाल चतुर्वेदी राष्ट्रीय पत्रकारिता एवं संचार विश्वविद्यालय, भोपाल के तत्वाधान में ‘पुलिस और मीडिया में संवाद’ विषय पर आयोजित संगोष्ठी का निष्कर्ष है कि पुलिस को मीडिया से संवाद के लिए प्रशिक्षण दिया जाए तथा पत्रकारों के लिए भी पुलिस से बातचीत करने और अपनी रिर्पोटिंग के दिशा निर्देश तय करने की जरूरत है। इससे ही सही मायने में दोनों वर्ग एक दूसरे के पूरक बन सकेंगें और लोकतंत्र मजबूत होगा। ऐसे संवाद से रिश्तों की नयी व्याख्या तो होगी ही साथ ही काम करने के लिए नए रास्ते बनेंगें। कोई भी रिश्ता संवाद से ही बनता और विकसित होता है। समाज के दो मुख्य अंग मीडिया और पुलिस अलग-अलग छोरों पर खड़े दिखें यह ठीक नहीं है।हमें सामूहिक उद्देश्यों की पूर्ति एवं सहायता के लिए आगे आना होगा। मीडिया और पुलिस एक दूसरे की विरोधी भूमिका में दिखते हैं। खबरों को प्लांट करना भी हमारे सामने एक बड़ा खतरा है।  हमारे रिश्ते दरअसल हिप्पोक्रेसी पर आधारित हैं। पुलिस छिपाती है और पत्रकार कुछ अलग छापते हैं। इसमें विश्वसनीयता का संकट बड़ा हो गया है।

अगर लोकतंत्र और हजारों सालों की विकसित एवं प्रशस्त परंपराओं वाले देश को बचाना है तो प्रहरी का अधिक अधिकार सम्पन्न और अधिक सुविधाओं से युक्त करना पड़ेगा। साथ में ऐसी प्रणाली भी विकसित करनी पड़ेगी जिससे मीडिया में प्रतिभा सम्पन्न और समाज एवं देश के प्रति निष्ठावान लोग ही प्रवेश पा सकें। पत्रकारिता में प्रवेश के लिए भी राष्ट्रीय स्तर, प्रदेश स्तर या फिर जिला स्तर पर प्रवेश परीक्षाएं आयोजित की जा सकती हैं ताकि चाटुकार और राजनैतिक रूप से प्रतिबद्ध लोग मीडिया के प्रवेश द्वारा को न लांघ सकें। वर्तमान स्थितियों में यह कहना असंगत न होगा कि आज मीडिया जगत में प्रवेश और प्रोन्नति का इकलौता तरीका अपने स्वाभिमान और ज्ञान को ताक पर रखकर अखबार के स्वामी या स्थानीय प्रमुख का दरबारी बनना भर है। क्या ऐसी नारकीय स्थितियों में काम करने के बाद हम किसी गणेश शंकर विद्यार्थी, महामना मालवीय, सी.वाई. चिंतामणि, बाबूराव, विष्णु पराड़कर, डॉ. सम्पूर्णानंद या विद्याभास्कर के पैदा होने की कल्पना कर सकते हैं? इन स्थितियों के लिए कौन जिम्मेदार है?

मीडिया ने हमारे समाज को हर क्षेत्र में प्रभावित किया है, यदि मीडिया समाज के प्रति अपनी जिम्मेदारी को समझते हुए सत्य की राह पर है तो उस समाज और राष्ट्र का कोई बाल भी बांका नहीं कर सकता है, लेकिन अगर दुर्भाग्यवश मीडिया ने समाज के प्रति अपनी जिम्मेदारी को नजर अंदाज करते हुए असत्य की राह पकड़ ली तो समाज व राष्ट का नाश तय है। मीडिया के दुरूपयोग को आमिर खान ने अपनी फिल्म 'पीपली लाईवÓ में काफी करीब से दिखाया गया है।

प्रेस की स्वतंत्रता सिर्फ उसके मालिक, संपादक और पत्रकारों की निजी व व्यवसायिक स्वतंत्रता तक सीमित नहीं होती बल्कि यह उसके पाठकों की सूचना पाने की स्वतंत्रता और समाज को जागरुक होने के अधिकार को भी अपने में समाहित करती है। प्रेस का सबसे बड़ा कर्तव्य समाज को जागरुक करना होता है।

पत्रकार संगठनों ने पत्रकारिता का वजूद बचाये रखने की दिशा में जो थोड़ी-बहुत कोशिशें जारी रखी हैं उनकी आवाज नक्कारखाने में तूती की आवाज ही बनकर रह गई है। दरअसल पत्रकार संगठनों के मुखिया अधिकतर सेवानिवृत्त होते हैं और उनके संपादक्त्व में निकलने वाले अखबार उनकी मौजूदगी में ही उन बीमारियों से ग्रस्त होते गए हैं और अपनी बात मनवाने की कोशिश में उन्हें नौकरी से हाथ धोना पड़ा था।

Wednesday 16 July 2014

मीडिया

चैनलों का इतिहासबोध

यह प्रतीत होता है कि समाचारपत्र एक साइकिल दुर्घटना और एक सभ्यता के ध्वंस में फर्क करने में अक्षम होते हैं’  जार्ज बर्नार्ड शॉ का यह तंज चौबीस घंटे के न्यूज चैनलों पर कुछ ज्यादा ही सटीक बैठता है. चैनलों की एक खास बात यह है कि वे काफी हद तक क्षणजीवी हैं यानी उनके लिए उनका इतिहास उसी पल, मिनट, घंटे या प्राइम टाइम तक सीमित होता है. वे उस घंटे, दिन या प्राइम टाइम से न आगे देख पाते हैं और न पीछे का इतिहास याद रख पाते हैं. नतीजा यह कि चैनलों को लगता है कि हर पल-हर दिन नया इतिहास बन रहा है. गोया चैनल पर उस पल घट रहे कथित इतिहास से न पहले कुछ हुआ है और न आगे कुछ होगा. इस तरह चैनलों का इतिहासबोध प्राइम टाइम के साथ बंधा होता है.  हैरानी की बात नहीं है कि चैनल दिल्ली विधानसभा चुनाव में अरविंद केजरीवाल के नेतृत्व वाली आप पार्टी के प्रदर्शन पर बिछे जा रहे हैं. उनकी रिपोर्टिंग और चर्चाओं से ऐसा लगता है कि जैसी सफलता आप को मिली है, वैसी न पहले किसी को मिली है और न आगे किसी को मिलेगी. न भूतो, न भविष्यति! यह भी कि जैसे देश की राजनीति इसी पल में ठहर गई है, जहां से वह आगे नहीं बढ़ेगी. जैसे कि विधानसभा में दूसरे नंबर की पार्टी के बावजूद आप की जीत के साथ इतिहास का अंत हो गया हो. जैसे देश को राजनीतिक मोक्ष मिल गया हो. मजे की बात यह है कि ये वही चैनल हैं जिनमें से कई मतगणना से पहले तक आप की चुनावी सफलता की संभावनाओं को बहुत महत्व देने को तैयार नहीं थे. कुछ उसे पूरी तरह खारिज कर रहे थे तो कुछ उसका मजाक भी उड़ा रहे थे. लेकिन नतीजे आने के साथ सभी के सुर बदल गए. हैरान-परेशान चैनलों के लिए देखते-देखते आप का प्रदर्शन न सिर्फ ऐतिहासिक बल्कि चमत्कारिक हो गया. उत्साही एंकर बहकने लगे. कई का इतिहासबोध जवाब देने लगा.  इसमें कोई संदेह नहीं है कि आप ने उम्मीद से कहीं ज्यादा प्रभावशाली चुनावी प्रदर्शन किया है, कई मायनों में यह प्रदर्शन ऐतिहासिक भी है. लेकिन वह न तो इतिहास का अंत है और न ही इतिहास की शुरुआत. असल में, पत्रकारिता के मूल्यों में ‘संतुलन’ का चाहे जितना महत्व हो लेकिन ऐसा लगता है कि न्यूज चैनलों के शब्दकोश से ‘संतुलन’ शब्द को धकिया कर बाहर कर दिया गया हो. हालांकि यह नई प्रवृत्ति नहीं है, लेकिन इसके साथ ही चैनलों से अनुपात बोध भी गायब हो गया है. सच पूछिए तो संतुलन और अनुपातबोध के बीच सीधा संबंध है. अनुपातबोध नहीं होगा तो संतुलन बनाए रखना मुश्किल है और संतुलन खो देने पर पहला शिकार अनुपातबोध होता है.  लेकिन अनुपातबोध के लिए इतिहासबोध जरूरी है. अगर आपमें इतिहासबोध नहीं है तो आपके लिए छोटी-बड़ी घटनाओं के बीच अनुपातबोध के साथ संतुलन बनाए रखना संभव नहीं है. इतिहासबोध न हो तो वही असंतुलन दिखाई देगा जो दिल्ली में आप पार्टी की सफलता की प्रस्तुति में दिखाई पड़ रहा है. हैरानी की बात नहीं है कि कुछ अपवादों को छोड़ दिया जाए तो ज्यादातर चैनलों के लिए आप की चुनावी सफलता पहेली है जिसे एक ऐतिहासिक-राजनीतिक संदर्भों में देखने और समझने में नाकाम रहने की भरपाई वे उसे चमत्कार की तरह पेश करके और उस पर लहालोट होकर कर रहे हैं.  कहते हैं कि लोगों की स्मृति छोटी होती है लेकिन चैनलों की स्मृति तो प्राइम टाइम तक ही सीमित हो गई लगती है. वे प्राइम टाइम में ऐसे बात करते हैं जैसे कल सुबह नहीं होगी, फिर चुनाव नहीं होंगे, फिर कोई और जीतेगा-हारेगा नहीं और जैसे राजनीति और इतिहास उसी पल में ठहर गए हों. यह और बात है कि कल भी राजनीति और इतिहास उन्हें इसी तरह हैरान करते रहेंगे
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समाज दिखता है पर सामाजिक सरोकार नहीं  

   Oct 23, 2013

जहां पिछली शताब्दी के सत्तर, अस्सी और नब्बे के दशक में दूरदर्शन अकेला चैनल था, वहीं आज अनेक चैनल ऐसे धारावाहिक प्रसारित कर रहे हैं, जिनसे देश का मिडिल क्लास बहुत लगाव महसूस करता है। सैटेलाइट चैनलों के विस्तार के साथ ही सोप ऑपेरा का रूप पूरी तरह बदल गया है। न सिर्फ इनके विषय और करैक्टर्स बदले हैं बल्कि परिवेश और दिखाने का अंदाज भी बदला है। अब सब कुछ बाजार निर्धारित कर रहा है, थीम और करैक्टर से लेकर भाषा और पहनावा तक। बाजार का टार्गेट है उभरता हुआ मिडल क्लास। वह वर्ग जो उदारीकरण और भूमंडलीकरण के इस दौर में तेजी से संपन्न हुआ है। यही तबका आज सबसे बड़ा उपभोक्ता है। बाजार वह सब कुछ दिखाना चाहता है जो इनके बीच बिक सके। वह इनके सपनों को उड़ान दे रहा है, साथ ही इनकी परंपराओं और रूढ़ियों तक को नई साज-सज्जा में पेश कर रहा है। इस तरह आज के धारावाहिकों में बदलते समाज की झलक तो मिलती है मगर कुछ ही फॉम्युर्ले के दोहराव के कारण एक बड़ा वर्ग इनसे दूर भी हुआ है और वह स्टैंड अप कॉमेडी और रिएलिटी शोज में दिलचस्पी लेने लगा है। इससे एक तरह की चुनौती भी निर्माताओं के सामने पैदा हुई है। इसलिए अब वे घर और ड्राइंगरूम के सीमित सेट से निकले रहे हैं और आउटडोर लोकेशन की चीजें ला रहे हैं। 24 इसका उदाहरण है। सीआईडी फाइल्स में भी यह कोशिश दिखती है। 
आज के कुछ लोकप्रिय धारावाहिकों की बात करें तो जी टीवी के सीरियल 'कुबूल है' ने धर्म और रिश्तों के आपसी उलझाव की व्यापक पड़ताल की है। जोया और असद की तय शादी के बार-बार टूटने का यथार्थ हमें बताता है कि आज समय किस कदर बदल चुका है। इसमें इस्लामी कल्चर को बेहद रवानगी के साथ पेश किया गया है और यह शायद अकेला ऐसा सीरियल है जो मुसलमानों में हो रहे वैचारिक परिवर्तनों को बेहद गहराई से रेखांकित करता है। 
मॉडर्न पुरुष की सोच 
हाल के वर्षों में स्त्री-पुरुष के संबंधों का रूप बदला है। खासकर पुरुष अपनी मानसिक जकड़बंदी से बाहर निकल रहे हैं। इस बदलाव को को देखना हो तो 'दिया और बाती हम' का नाम लिया जा सकता है। स्टार प्लस के इस सीरियल में कम पढ़ा-लिखा सूरज अपनी टॉपर पत्नी संध्या के सपनों को पूरा करने के लिए अनेक मुसीबतें झेलता है। पुष्कर की एक मारवाड़ी फैमिली से जुड़े ढेर सारे पहलुओं को दिखाकर यह सीरियल परंपरा और आधुनिकता का द्वंद्व प्रस्तुत करता है। प्रेम फिल्मों के लिए ही नहीं, बल्कि सीरियलों के लिए भी एक महत्वपूर्ण और रोचक विषय रहा है। सवाल है कि इस घिसे-पिटे विषय में नया क्या है ? नया है प्रेम को पेश करने का तरीका चाहे वह एसएमएस की सुविधा का लाभ लेते हुए किया जाए या फिर वैलंटाइन कार्ड देकर। उदारीकरण के बाद प्रेम की व्यूअरशिप में जो बदलाव आए उन्होंने सीरियल निर्माताओं पर यह दबाव डाला कि वे इसके ऐसे पक्षों को दिखाएं जो या तो अब तक अछूते रहे थे या फिर जिनका ग्लोबल करैक्टर प्रस्तुत नहीं हो पा रहा था। पहले भी प्रेम के सीरियल बने और दिखाए गए थे। हम प्रेम के गुनगुने और शरबती आयाम को दिखाने वाले दूरदर्शन के दो दशक पुराने सीरियल 'फिर वही तलाश' का नाम ले सकते हैं लेकिन आज ये चीजें 'प्यार का दर्द है मीठा-मीठा प्यारा प्यारा' (स्टार प्लस) और 'बड़े अच्छे लगते हैं' (सोनी) जैसे सीरियलों के जरिए अपने बदले हुए रूपों में दिखाई जा रही हैं। बड़े अच्छे लगते हैं ने चालीस की उम्र के आसपास के एक जोड़े के रोमांस को दिखाया है। युवा पीढ़ी की महत्वाकांक्षाएं ग्लोबलाइजेशन के इस दौर में बढ़ी हैं और लिव इन कल्चर या करियर की तरफ ज्यादा ध्यान देने के कारण आज विवाह की उम्र बढ़ रही है। इस धरावाहिक के नायक-नायिका राम कपूर और प्रिया पहले शत्रुता का भाव रखते हैं फिर दोस्त बनते हैं और वक्त के साथ यह दोस्ती प्यार में बदल जाती है। इस सीरियल में और प्रकारांतर से कहें तो आज के अनेक सीरियलों में भाई-बहन के खूबसूरत रिश्ते भी बैकग्राउंड में चलते रहते हैं। यह सब एक भव्य सेट के साथ आज के सीरियलों में दिखाया जा रहा है। हालांकि क्योंकि सास भी कभी बहू थी जैसे सीरियलों ने भी संयुक्त परिवार के माहौल को खूब बढ़ा - चढ़ा कर दिखाया और दर्शकों ने इसे खूब पसंद भी किया है। संयुक्त परिवार आज भी एक हिट विषय है क्योंकि यह मध्यवर्ग का नॉस्टैल्जिया है। इस बात को बाजार अच्छी तरह समझता है। आज के व्यूअर्स कपड़े और गहनों के साथ - साथ इस बात पर भी ध्यान देते हैं कि उनके प्रिय सीरियल में किरदारों के पास किस कंपनी के मोबाइल फोन्स या कारें हैं या उनके घरों की , उनके किचन की सजावट किस तरह की गई है। आज खाने से ज्यादा जोर खाना परोसने के और खाना खाने के तरीकों पर है। इन सीरियलों में समाज तो खूब दिखता है लेकिन सामाजिक सरोकार नहीं दिखाई देता। शायद बाजार से इसकी उम्मीद नहीं की जा स कती। 
हिट है जॉइंट फैमिली 

 सोशल मीडिया व चुनाव-2014

आपको याद होगा। साल भर से ज्यादा पुरानी बात नहीं है। सोशल मीडिया को लेकर एक अध्ययन किया गया था। इसमें कहा गया कि 2014 के आम चुनावों में 543 लोकसभा सीटों में से 160 सीटों के नतीजों को सोशल मीडिया प्रभावित कर सकता है। सोशल मीडिया यानी फेसबुक, टि्वटर, इंस्टाग्राम, लिंकडिन, व्हाट्स अप आदि इंटरनेट पर उपलब्ध माध्यम देश के राजनीतिक भविष्य को तय करने का जरिया बन सकते हैं। भारत के संदर्भ में यह एक नई बात थी। इसलिए तब इसे इतनी गंभीरता से शायद ही किसी ने लिया। लेकिन दिल्ली विधानसभा चुनाव नतीजों के बाद हर कोई इस पर विचार करने को मजबूर है। आज तो सभी राजनीतिक दलों में एक बेचैनी-सी नजर आ रही है। वे अपनी रणनीति का नए सिरे से आकलन करने में जुटे हैं। विश्लेषक भी सोशल मीडिया की इस ताकत को तौल रहे हैं। साल भर के भीतर परिदृश्य बदल गया। 8 दिसंबर के बाद यह परिवर्तन मानो परवान चढ़ गया।  सवाल है, ऎसा क्या हुआ कि सोशल मीडिया को राजनीति के एक सशक्त औजार के रूप में देखा जाने लगा है। क्या सोशल मीडिया के जरिए राजनीति में धूमकेतु की तरह उभरे एक नए दल "आप" की सफलता का यह परिणाम है या इससे अधिक कुछ और भी है?  यह अध्ययन आई.आर.आई.एस. नॉलेज फाउंडेशन और इंटरनेट एवं मोबाइल एसोसिएशन आफ इंडिया के संयुक्त तत्वावधान में किया गया था। लोकसभा की 160 सीटों के नतीजों को प्रभावित करने वाले निर्वाचन क्षेत्र वे हैं जहां कुल मतदाताओं की दस प्रतिशत आबादी सोशल मीडिया पर सक्रिय है। इसका मतलब यह है कि सोशल मीडिया उपभोक्ताओं की संख्या इन निर्वाचन क्षेत्रों में पिछले चुनाव में विजयी उम्मीदवार की जीत के अन्तर से अधिक है। ये आंकड़े करीब साल भर पुराने हैं। यानी फेसबुक और टि्वटर यूजर्स की संख्या में इस दौरान जो बढ़ोतरी हुई, वह अलग है। इस अध्ययन का दिल्ली चुनाव में एक हद तक परीक्षण हो चुका है।  शायद इसीलिए आगामी आम चुनावों पर सबकी नजरें टिक गई हैं। अध्ययन में अलग-अलग राज्यों की सीटों की जो अलग-अलग संख्या बताई गई थीं उनमें दिल्ली अकेला प्रदेश था, जहां सभी 7 सीटें सोशल मीडिया के उच्च प्रभाव में मानी गई। अध्ययन में सोशल मीडिया के सीटों पर असर को चार श्रेणियों में बांटा गया था। ये थीं उच्च प्रभाव, मध्यम प्रभाव, कम प्रभाव तथा प्रभावहीन सीटें। इसमें महाराष्ट्र, गुजरात, उत्तरप्रदेश, कर्नाटक, मध्यप्रदेश, राजस्थान, पंजाब, हरियाणा, छत्तीसगढ़, बिहार, जम्मू-कश्मीर, प. बंगाल, झारखंड आदि राज्यों की करीब 93 सीटों को उच्च प्रभाव की श्रेणी में रखा गया। 67 सीटों को मध्यम प्रभाव, 60 सीटों को कम प्रभाव तथा 256 सीटों को प्रभावहीन घोषित किया गया था। अध्ययन के ये निष्कर्ष कितने सही, कितने गलत साबित होंगे, यह कहना मुश्किल है। लेकिन यह तय है कि आज कोई भी राजनीतिक दल इसकी अनदेखी करने की जोखिम नहीं उठा सकता। खासकर, तब जब देश में न केवल युवा बल्कि हर उम्र और वर्ग के पढ़े-लिखे लोगों की सोशल मीडिया से जुड़ने की संख्या निरन्तर बढ़ती जा रही है।  इंटरनेट के मामले में तो भारत तेजी से अन्य देशों से आगे निकलता जा रहा है। खास बात यह है कि शहरी क्षेत्र के मुकाबले ग्रामीण क्षेत्रों में बढ़त ज्यादा तेज गति से हो रही है। भारत में इंटरनेट एंड मोबाइल एसोसिएशन की ताजा रिपोर्ट के अनुसार ग्रामीण इलाकों में इंटरनेट की विकास दर 58 प्रतिशत सालाना की दर से हो रही है। ग्रामीण भारत में इस वक्त 6.8 करोड़ उपभोक्ता है। इंटरनेट उपभोक्ताओं की कुल संख्या 20 करोड़ से ऊपर पहुंच गई है। इनमें सोशल मीडिया से जुड़े उपभोक्ताओं की संख्या भी तेजी से बढ़ रही है। आज यह संख्या 9 से 10 करोड़ के बीच आंकी जा रही है। इतनी बड़ी आबादी की अनदेखी करना संभव नहीं है। सोशल मीडिया से जुड़े इस विशाल समुदाय का उद्देश्य सिर्फ मनोरंजन या निजी बातचीत तक सीमित नहीं है। सोशल नेटवर्क पर 45 प्रतिशत से अधिक लोग राजनीतिक विमर्श भी खुलकर कर रहे हैं। यह एक नए किस्म का राजनीतिक समूह है, जो सभी दलों को समझ में आ रहा है।
सवाल मत कर...!
बदलते राजनीतिक दौर में कई नेताओं को पत्रकारों द्वारा तीखे सवाल करना रास नहीं आ रहा। ऎसा ही गत दिनों हरियाणा के मुख्यमंत्री भूपेन्दर सिंह हुड्डा ने किया। एक संवाददाता ने हरियाणा सिविल सर्विस में उनके रिश्तेदार के चयन पर सवाल पूछ लिया। फिर क्या था। सी.एम. साहब आपा खो बैठे— "तू बता कौन-सा मेरा रिश्तेदार है... या तो नाम बता या फिर सवाल मत कर।..." हुड्डा यहीं नहीं रूके। उन्होंने युवा कैमरामैन को भी नहीं बख्शा— "कैमरा तेने ठीक से पकड़ना नी आता। सवाल कर रहा भारी-भारी... जा बेटा... जा... थोड़ा तजुर्बा ले ले...।"

 सोशल मीडिया पर राजनीति

आगामी चुनावों में सोशल मीडिया का प्रयोग कैसे और किस रूप में किया जाए, इसको लेकर राजनीतिज्ञों के बीच एक बड़ी बहस छिड़ी हुई है। सोशल मीडिया व इंटरनेट से जुड़ी दो रिपोट्र्स ने इस बहस को और तेज कर दिया है। पहली, आइरिश नॉलेज फाउंडेशन और इंटरनेट मोबाइल एसोसिएशन ऑफ इंडिया की रिपोर्ट के अनुसार सोशल मीडिया अगले लोकसभा चुनाव में 543 सीटों में से 160 सीटों पर अपना प्रभावी असर दिखाएगा।  रिपोर्ट में यह भी खुलासा किया गया है कि पिछले चुनाव में 160 सीटों पर जो अंतर था, आज वहां उससे अधिक फेसबुक यूजर्स हैं। खास बात यह भी है कि फेसबुक इस्तेमाल करने वालों की यह संख्या इन सीटों के कुल मतदाताओं के 10 फीसद से अधिक है। इसलिए इन सीटों को फेसबुक से अधिक प्रभावित होने वाली सीटें कहा जा रहा है। इन संस्थाओं ने 67 सीटों को मध्यम श्रेणी में, 60 सीटों को न्यूनतम प्रभाव वाली श्रेणी में और बाकी बची 256 सीटों को सोशल मीडिया के प्रभाव से मुक्तबताया है।  सोशल मीडिया से प्रभावित होने वाली सबसे अधिक सीटें 21 महाराष्ट्र में, 17 सीटें गुजरात में, 14 सीटें उत्तर प्रदेश में, 12-12 सीटें कर्नाटक व तमिलनाडु में हैं। आन्ध्र प्रदेश में 11, केरल में 10, मध्य प्रदेश में 9 तथा दिल्ली की 7 सीटो के सोशल मीडिया से प्रभावित होने की पूरी सम्भावना है। हरियाणा, पंजाब, राजस्थान में पांच-पांच सीटें तथा बिहार, छत्तीसगढ़, जम्मू कश्मीर, झारखण्ड व पश्चिम बंगाल की चार-चार सीटें सोशल मीडिया से प्रभावित होने की सम्भावना जताई गई हैं।  इससे जुड़ी दूसरी रिपोर्ट अमरीका आधारित नॉन पार्टिजन फैक्ट टैंक और प्यू रिसर्च सेंटर द्वारा "ग्लोबल एटिटयूड" नाम से है, जिसमें 21 देशों का सर्वे शामिल है। इसमें यह साफ कहा गया है कि भारत में मात्र छह फीसद लोग ही सोशल मीडिया का प्रयोग करते हैं। लिहाजा, भारत में इसका प्रभाव चुनाव पर उतना नहीं पड़ेगा, जितना विकसित देशों में पड़ता है। रिपोर्ट यह भी बताती है कि भारत में अमरीका के 92 फीसद के मुकाबले मात्र 10-12 फीसद लोग ही इंटरनेट का प्रयोग करते हैं। सोशल मीडिया का आगामी चुनाव में कितना प्रभाव पड़ेगा, यह तो आने वाला समय ही बताएगा, पर इतना जरूर है कि इन दोनों ही रिपोट्र्स में राजनीति में सोशल मीडिया के प्रयोग के सच को गहराई से स्वीकार किया गया है। यही वजह है कि आज भारत के कई राजनीतिक दलों ने फेसबुक व टि्वटर पर अपने अकाउंट्स खोल दिए हैं।  आज सोशल मीडिया सामाजिक, शैक्षिक, आर्थिक व राजनीतिक जगत का एक बहुत बड़ा शक्ति केन्द्र बनता जा रहा है। गौरतलब है कि सबसे लोकप्रिय सोशल नेटवर्किग साइट फेसबुक पर नरेन्द्र मोदी ने ममता बनर्जी और एम. करूणानिधि जैसे बहुचर्चित नामों को पछाड़ दिया और पहले स्थान पर पहुंच गए हैं। आज दुनिया में एक अरब से भी अधिक लोग सोशल मीडिया से जुड़े हुए हैं। जहां तक भारत का सवाल है, तो यहां 2010 में इन्टरनेट यूजर्स की जो संख्या सात-आठ करोड़ के करीब थी, वह 2013 में 10-12 करोड़ के करीब पहुंच गई है।
यहां सोशल मीडिया से जुड़े यूजर्स की संख्या भी आठ करोड़ को पार कर गई है। नेल्सन कम्पनी द्वारा किए गए अध्ययन बताते हैं कि भारत में सात-आठ करोड़ से अधिक उपभोक्ता सोशल नेटवर्किग साइट्स से जुड़े हैं। सोशल मीडिया से जुड़े इन यूजर्स का मकसद उस पर केवल निजी बातचीत या मनोरंजन करना ही नहीं है, बल्कि 45 फीसद से भी अधिक यूजर्स सघन राजनीतिक विमर्श भी खुलकर करते हैं। सोशल मीडिया से जुड़ी ये रिपोट्र्स इस बात का संकेत हैैं कि आज के दौर में सोशल मीडिया की अपनी एक हैसियत है, जिससे राजनीति भी अब अछूती नहीं है।