Wednesday 16 July 2014

मीडिया

चैनलों का इतिहासबोध

यह प्रतीत होता है कि समाचारपत्र एक साइकिल दुर्घटना और एक सभ्यता के ध्वंस में फर्क करने में अक्षम होते हैं’  जार्ज बर्नार्ड शॉ का यह तंज चौबीस घंटे के न्यूज चैनलों पर कुछ ज्यादा ही सटीक बैठता है. चैनलों की एक खास बात यह है कि वे काफी हद तक क्षणजीवी हैं यानी उनके लिए उनका इतिहास उसी पल, मिनट, घंटे या प्राइम टाइम तक सीमित होता है. वे उस घंटे, दिन या प्राइम टाइम से न आगे देख पाते हैं और न पीछे का इतिहास याद रख पाते हैं. नतीजा यह कि चैनलों को लगता है कि हर पल-हर दिन नया इतिहास बन रहा है. गोया चैनल पर उस पल घट रहे कथित इतिहास से न पहले कुछ हुआ है और न आगे कुछ होगा. इस तरह चैनलों का इतिहासबोध प्राइम टाइम के साथ बंधा होता है.  हैरानी की बात नहीं है कि चैनल दिल्ली विधानसभा चुनाव में अरविंद केजरीवाल के नेतृत्व वाली आप पार्टी के प्रदर्शन पर बिछे जा रहे हैं. उनकी रिपोर्टिंग और चर्चाओं से ऐसा लगता है कि जैसी सफलता आप को मिली है, वैसी न पहले किसी को मिली है और न आगे किसी को मिलेगी. न भूतो, न भविष्यति! यह भी कि जैसे देश की राजनीति इसी पल में ठहर गई है, जहां से वह आगे नहीं बढ़ेगी. जैसे कि विधानसभा में दूसरे नंबर की पार्टी के बावजूद आप की जीत के साथ इतिहास का अंत हो गया हो. जैसे देश को राजनीतिक मोक्ष मिल गया हो. मजे की बात यह है कि ये वही चैनल हैं जिनमें से कई मतगणना से पहले तक आप की चुनावी सफलता की संभावनाओं को बहुत महत्व देने को तैयार नहीं थे. कुछ उसे पूरी तरह खारिज कर रहे थे तो कुछ उसका मजाक भी उड़ा रहे थे. लेकिन नतीजे आने के साथ सभी के सुर बदल गए. हैरान-परेशान चैनलों के लिए देखते-देखते आप का प्रदर्शन न सिर्फ ऐतिहासिक बल्कि चमत्कारिक हो गया. उत्साही एंकर बहकने लगे. कई का इतिहासबोध जवाब देने लगा.  इसमें कोई संदेह नहीं है कि आप ने उम्मीद से कहीं ज्यादा प्रभावशाली चुनावी प्रदर्शन किया है, कई मायनों में यह प्रदर्शन ऐतिहासिक भी है. लेकिन वह न तो इतिहास का अंत है और न ही इतिहास की शुरुआत. असल में, पत्रकारिता के मूल्यों में ‘संतुलन’ का चाहे जितना महत्व हो लेकिन ऐसा लगता है कि न्यूज चैनलों के शब्दकोश से ‘संतुलन’ शब्द को धकिया कर बाहर कर दिया गया हो. हालांकि यह नई प्रवृत्ति नहीं है, लेकिन इसके साथ ही चैनलों से अनुपात बोध भी गायब हो गया है. सच पूछिए तो संतुलन और अनुपातबोध के बीच सीधा संबंध है. अनुपातबोध नहीं होगा तो संतुलन बनाए रखना मुश्किल है और संतुलन खो देने पर पहला शिकार अनुपातबोध होता है.  लेकिन अनुपातबोध के लिए इतिहासबोध जरूरी है. अगर आपमें इतिहासबोध नहीं है तो आपके लिए छोटी-बड़ी घटनाओं के बीच अनुपातबोध के साथ संतुलन बनाए रखना संभव नहीं है. इतिहासबोध न हो तो वही असंतुलन दिखाई देगा जो दिल्ली में आप पार्टी की सफलता की प्रस्तुति में दिखाई पड़ रहा है. हैरानी की बात नहीं है कि कुछ अपवादों को छोड़ दिया जाए तो ज्यादातर चैनलों के लिए आप की चुनावी सफलता पहेली है जिसे एक ऐतिहासिक-राजनीतिक संदर्भों में देखने और समझने में नाकाम रहने की भरपाई वे उसे चमत्कार की तरह पेश करके और उस पर लहालोट होकर कर रहे हैं.  कहते हैं कि लोगों की स्मृति छोटी होती है लेकिन चैनलों की स्मृति तो प्राइम टाइम तक ही सीमित हो गई लगती है. वे प्राइम टाइम में ऐसे बात करते हैं जैसे कल सुबह नहीं होगी, फिर चुनाव नहीं होंगे, फिर कोई और जीतेगा-हारेगा नहीं और जैसे राजनीति और इतिहास उसी पल में ठहर गए हों. यह और बात है कि कल भी राजनीति और इतिहास उन्हें इसी तरह हैरान करते रहेंगे
================
समाज दिखता है पर सामाजिक सरोकार नहीं  

   Oct 23, 2013

जहां पिछली शताब्दी के सत्तर, अस्सी और नब्बे के दशक में दूरदर्शन अकेला चैनल था, वहीं आज अनेक चैनल ऐसे धारावाहिक प्रसारित कर रहे हैं, जिनसे देश का मिडिल क्लास बहुत लगाव महसूस करता है। सैटेलाइट चैनलों के विस्तार के साथ ही सोप ऑपेरा का रूप पूरी तरह बदल गया है। न सिर्फ इनके विषय और करैक्टर्स बदले हैं बल्कि परिवेश और दिखाने का अंदाज भी बदला है। अब सब कुछ बाजार निर्धारित कर रहा है, थीम और करैक्टर से लेकर भाषा और पहनावा तक। बाजार का टार्गेट है उभरता हुआ मिडल क्लास। वह वर्ग जो उदारीकरण और भूमंडलीकरण के इस दौर में तेजी से संपन्न हुआ है। यही तबका आज सबसे बड़ा उपभोक्ता है। बाजार वह सब कुछ दिखाना चाहता है जो इनके बीच बिक सके। वह इनके सपनों को उड़ान दे रहा है, साथ ही इनकी परंपराओं और रूढ़ियों तक को नई साज-सज्जा में पेश कर रहा है। इस तरह आज के धारावाहिकों में बदलते समाज की झलक तो मिलती है मगर कुछ ही फॉम्युर्ले के दोहराव के कारण एक बड़ा वर्ग इनसे दूर भी हुआ है और वह स्टैंड अप कॉमेडी और रिएलिटी शोज में दिलचस्पी लेने लगा है। इससे एक तरह की चुनौती भी निर्माताओं के सामने पैदा हुई है। इसलिए अब वे घर और ड्राइंगरूम के सीमित सेट से निकले रहे हैं और आउटडोर लोकेशन की चीजें ला रहे हैं। 24 इसका उदाहरण है। सीआईडी फाइल्स में भी यह कोशिश दिखती है। 
आज के कुछ लोकप्रिय धारावाहिकों की बात करें तो जी टीवी के सीरियल 'कुबूल है' ने धर्म और रिश्तों के आपसी उलझाव की व्यापक पड़ताल की है। जोया और असद की तय शादी के बार-बार टूटने का यथार्थ हमें बताता है कि आज समय किस कदर बदल चुका है। इसमें इस्लामी कल्चर को बेहद रवानगी के साथ पेश किया गया है और यह शायद अकेला ऐसा सीरियल है जो मुसलमानों में हो रहे वैचारिक परिवर्तनों को बेहद गहराई से रेखांकित करता है। 
मॉडर्न पुरुष की सोच 
हाल के वर्षों में स्त्री-पुरुष के संबंधों का रूप बदला है। खासकर पुरुष अपनी मानसिक जकड़बंदी से बाहर निकल रहे हैं। इस बदलाव को को देखना हो तो 'दिया और बाती हम' का नाम लिया जा सकता है। स्टार प्लस के इस सीरियल में कम पढ़ा-लिखा सूरज अपनी टॉपर पत्नी संध्या के सपनों को पूरा करने के लिए अनेक मुसीबतें झेलता है। पुष्कर की एक मारवाड़ी फैमिली से जुड़े ढेर सारे पहलुओं को दिखाकर यह सीरियल परंपरा और आधुनिकता का द्वंद्व प्रस्तुत करता है। प्रेम फिल्मों के लिए ही नहीं, बल्कि सीरियलों के लिए भी एक महत्वपूर्ण और रोचक विषय रहा है। सवाल है कि इस घिसे-पिटे विषय में नया क्या है ? नया है प्रेम को पेश करने का तरीका चाहे वह एसएमएस की सुविधा का लाभ लेते हुए किया जाए या फिर वैलंटाइन कार्ड देकर। उदारीकरण के बाद प्रेम की व्यूअरशिप में जो बदलाव आए उन्होंने सीरियल निर्माताओं पर यह दबाव डाला कि वे इसके ऐसे पक्षों को दिखाएं जो या तो अब तक अछूते रहे थे या फिर जिनका ग्लोबल करैक्टर प्रस्तुत नहीं हो पा रहा था। पहले भी प्रेम के सीरियल बने और दिखाए गए थे। हम प्रेम के गुनगुने और शरबती आयाम को दिखाने वाले दूरदर्शन के दो दशक पुराने सीरियल 'फिर वही तलाश' का नाम ले सकते हैं लेकिन आज ये चीजें 'प्यार का दर्द है मीठा-मीठा प्यारा प्यारा' (स्टार प्लस) और 'बड़े अच्छे लगते हैं' (सोनी) जैसे सीरियलों के जरिए अपने बदले हुए रूपों में दिखाई जा रही हैं। बड़े अच्छे लगते हैं ने चालीस की उम्र के आसपास के एक जोड़े के रोमांस को दिखाया है। युवा पीढ़ी की महत्वाकांक्षाएं ग्लोबलाइजेशन के इस दौर में बढ़ी हैं और लिव इन कल्चर या करियर की तरफ ज्यादा ध्यान देने के कारण आज विवाह की उम्र बढ़ रही है। इस धरावाहिक के नायक-नायिका राम कपूर और प्रिया पहले शत्रुता का भाव रखते हैं फिर दोस्त बनते हैं और वक्त के साथ यह दोस्ती प्यार में बदल जाती है। इस सीरियल में और प्रकारांतर से कहें तो आज के अनेक सीरियलों में भाई-बहन के खूबसूरत रिश्ते भी बैकग्राउंड में चलते रहते हैं। यह सब एक भव्य सेट के साथ आज के सीरियलों में दिखाया जा रहा है। हालांकि क्योंकि सास भी कभी बहू थी जैसे सीरियलों ने भी संयुक्त परिवार के माहौल को खूब बढ़ा - चढ़ा कर दिखाया और दर्शकों ने इसे खूब पसंद भी किया है। संयुक्त परिवार आज भी एक हिट विषय है क्योंकि यह मध्यवर्ग का नॉस्टैल्जिया है। इस बात को बाजार अच्छी तरह समझता है। आज के व्यूअर्स कपड़े और गहनों के साथ - साथ इस बात पर भी ध्यान देते हैं कि उनके प्रिय सीरियल में किरदारों के पास किस कंपनी के मोबाइल फोन्स या कारें हैं या उनके घरों की , उनके किचन की सजावट किस तरह की गई है। आज खाने से ज्यादा जोर खाना परोसने के और खाना खाने के तरीकों पर है। इन सीरियलों में समाज तो खूब दिखता है लेकिन सामाजिक सरोकार नहीं दिखाई देता। शायद बाजार से इसकी उम्मीद नहीं की जा स कती। 
हिट है जॉइंट फैमिली 

 सोशल मीडिया व चुनाव-2014

आपको याद होगा। साल भर से ज्यादा पुरानी बात नहीं है। सोशल मीडिया को लेकर एक अध्ययन किया गया था। इसमें कहा गया कि 2014 के आम चुनावों में 543 लोकसभा सीटों में से 160 सीटों के नतीजों को सोशल मीडिया प्रभावित कर सकता है। सोशल मीडिया यानी फेसबुक, टि्वटर, इंस्टाग्राम, लिंकडिन, व्हाट्स अप आदि इंटरनेट पर उपलब्ध माध्यम देश के राजनीतिक भविष्य को तय करने का जरिया बन सकते हैं। भारत के संदर्भ में यह एक नई बात थी। इसलिए तब इसे इतनी गंभीरता से शायद ही किसी ने लिया। लेकिन दिल्ली विधानसभा चुनाव नतीजों के बाद हर कोई इस पर विचार करने को मजबूर है। आज तो सभी राजनीतिक दलों में एक बेचैनी-सी नजर आ रही है। वे अपनी रणनीति का नए सिरे से आकलन करने में जुटे हैं। विश्लेषक भी सोशल मीडिया की इस ताकत को तौल रहे हैं। साल भर के भीतर परिदृश्य बदल गया। 8 दिसंबर के बाद यह परिवर्तन मानो परवान चढ़ गया।  सवाल है, ऎसा क्या हुआ कि सोशल मीडिया को राजनीति के एक सशक्त औजार के रूप में देखा जाने लगा है। क्या सोशल मीडिया के जरिए राजनीति में धूमकेतु की तरह उभरे एक नए दल "आप" की सफलता का यह परिणाम है या इससे अधिक कुछ और भी है?  यह अध्ययन आई.आर.आई.एस. नॉलेज फाउंडेशन और इंटरनेट एवं मोबाइल एसोसिएशन आफ इंडिया के संयुक्त तत्वावधान में किया गया था। लोकसभा की 160 सीटों के नतीजों को प्रभावित करने वाले निर्वाचन क्षेत्र वे हैं जहां कुल मतदाताओं की दस प्रतिशत आबादी सोशल मीडिया पर सक्रिय है। इसका मतलब यह है कि सोशल मीडिया उपभोक्ताओं की संख्या इन निर्वाचन क्षेत्रों में पिछले चुनाव में विजयी उम्मीदवार की जीत के अन्तर से अधिक है। ये आंकड़े करीब साल भर पुराने हैं। यानी फेसबुक और टि्वटर यूजर्स की संख्या में इस दौरान जो बढ़ोतरी हुई, वह अलग है। इस अध्ययन का दिल्ली चुनाव में एक हद तक परीक्षण हो चुका है।  शायद इसीलिए आगामी आम चुनावों पर सबकी नजरें टिक गई हैं। अध्ययन में अलग-अलग राज्यों की सीटों की जो अलग-अलग संख्या बताई गई थीं उनमें दिल्ली अकेला प्रदेश था, जहां सभी 7 सीटें सोशल मीडिया के उच्च प्रभाव में मानी गई। अध्ययन में सोशल मीडिया के सीटों पर असर को चार श्रेणियों में बांटा गया था। ये थीं उच्च प्रभाव, मध्यम प्रभाव, कम प्रभाव तथा प्रभावहीन सीटें। इसमें महाराष्ट्र, गुजरात, उत्तरप्रदेश, कर्नाटक, मध्यप्रदेश, राजस्थान, पंजाब, हरियाणा, छत्तीसगढ़, बिहार, जम्मू-कश्मीर, प. बंगाल, झारखंड आदि राज्यों की करीब 93 सीटों को उच्च प्रभाव की श्रेणी में रखा गया। 67 सीटों को मध्यम प्रभाव, 60 सीटों को कम प्रभाव तथा 256 सीटों को प्रभावहीन घोषित किया गया था। अध्ययन के ये निष्कर्ष कितने सही, कितने गलत साबित होंगे, यह कहना मुश्किल है। लेकिन यह तय है कि आज कोई भी राजनीतिक दल इसकी अनदेखी करने की जोखिम नहीं उठा सकता। खासकर, तब जब देश में न केवल युवा बल्कि हर उम्र और वर्ग के पढ़े-लिखे लोगों की सोशल मीडिया से जुड़ने की संख्या निरन्तर बढ़ती जा रही है।  इंटरनेट के मामले में तो भारत तेजी से अन्य देशों से आगे निकलता जा रहा है। खास बात यह है कि शहरी क्षेत्र के मुकाबले ग्रामीण क्षेत्रों में बढ़त ज्यादा तेज गति से हो रही है। भारत में इंटरनेट एंड मोबाइल एसोसिएशन की ताजा रिपोर्ट के अनुसार ग्रामीण इलाकों में इंटरनेट की विकास दर 58 प्रतिशत सालाना की दर से हो रही है। ग्रामीण भारत में इस वक्त 6.8 करोड़ उपभोक्ता है। इंटरनेट उपभोक्ताओं की कुल संख्या 20 करोड़ से ऊपर पहुंच गई है। इनमें सोशल मीडिया से जुड़े उपभोक्ताओं की संख्या भी तेजी से बढ़ रही है। आज यह संख्या 9 से 10 करोड़ के बीच आंकी जा रही है। इतनी बड़ी आबादी की अनदेखी करना संभव नहीं है। सोशल मीडिया से जुड़े इस विशाल समुदाय का उद्देश्य सिर्फ मनोरंजन या निजी बातचीत तक सीमित नहीं है। सोशल नेटवर्क पर 45 प्रतिशत से अधिक लोग राजनीतिक विमर्श भी खुलकर कर रहे हैं। यह एक नए किस्म का राजनीतिक समूह है, जो सभी दलों को समझ में आ रहा है।
सवाल मत कर...!
बदलते राजनीतिक दौर में कई नेताओं को पत्रकारों द्वारा तीखे सवाल करना रास नहीं आ रहा। ऎसा ही गत दिनों हरियाणा के मुख्यमंत्री भूपेन्दर सिंह हुड्डा ने किया। एक संवाददाता ने हरियाणा सिविल सर्विस में उनके रिश्तेदार के चयन पर सवाल पूछ लिया। फिर क्या था। सी.एम. साहब आपा खो बैठे— "तू बता कौन-सा मेरा रिश्तेदार है... या तो नाम बता या फिर सवाल मत कर।..." हुड्डा यहीं नहीं रूके। उन्होंने युवा कैमरामैन को भी नहीं बख्शा— "कैमरा तेने ठीक से पकड़ना नी आता। सवाल कर रहा भारी-भारी... जा बेटा... जा... थोड़ा तजुर्बा ले ले...।"

 सोशल मीडिया पर राजनीति

आगामी चुनावों में सोशल मीडिया का प्रयोग कैसे और किस रूप में किया जाए, इसको लेकर राजनीतिज्ञों के बीच एक बड़ी बहस छिड़ी हुई है। सोशल मीडिया व इंटरनेट से जुड़ी दो रिपोट्र्स ने इस बहस को और तेज कर दिया है। पहली, आइरिश नॉलेज फाउंडेशन और इंटरनेट मोबाइल एसोसिएशन ऑफ इंडिया की रिपोर्ट के अनुसार सोशल मीडिया अगले लोकसभा चुनाव में 543 सीटों में से 160 सीटों पर अपना प्रभावी असर दिखाएगा।  रिपोर्ट में यह भी खुलासा किया गया है कि पिछले चुनाव में 160 सीटों पर जो अंतर था, आज वहां उससे अधिक फेसबुक यूजर्स हैं। खास बात यह भी है कि फेसबुक इस्तेमाल करने वालों की यह संख्या इन सीटों के कुल मतदाताओं के 10 फीसद से अधिक है। इसलिए इन सीटों को फेसबुक से अधिक प्रभावित होने वाली सीटें कहा जा रहा है। इन संस्थाओं ने 67 सीटों को मध्यम श्रेणी में, 60 सीटों को न्यूनतम प्रभाव वाली श्रेणी में और बाकी बची 256 सीटों को सोशल मीडिया के प्रभाव से मुक्तबताया है।  सोशल मीडिया से प्रभावित होने वाली सबसे अधिक सीटें 21 महाराष्ट्र में, 17 सीटें गुजरात में, 14 सीटें उत्तर प्रदेश में, 12-12 सीटें कर्नाटक व तमिलनाडु में हैं। आन्ध्र प्रदेश में 11, केरल में 10, मध्य प्रदेश में 9 तथा दिल्ली की 7 सीटो के सोशल मीडिया से प्रभावित होने की पूरी सम्भावना है। हरियाणा, पंजाब, राजस्थान में पांच-पांच सीटें तथा बिहार, छत्तीसगढ़, जम्मू कश्मीर, झारखण्ड व पश्चिम बंगाल की चार-चार सीटें सोशल मीडिया से प्रभावित होने की सम्भावना जताई गई हैं।  इससे जुड़ी दूसरी रिपोर्ट अमरीका आधारित नॉन पार्टिजन फैक्ट टैंक और प्यू रिसर्च सेंटर द्वारा "ग्लोबल एटिटयूड" नाम से है, जिसमें 21 देशों का सर्वे शामिल है। इसमें यह साफ कहा गया है कि भारत में मात्र छह फीसद लोग ही सोशल मीडिया का प्रयोग करते हैं। लिहाजा, भारत में इसका प्रभाव चुनाव पर उतना नहीं पड़ेगा, जितना विकसित देशों में पड़ता है। रिपोर्ट यह भी बताती है कि भारत में अमरीका के 92 फीसद के मुकाबले मात्र 10-12 फीसद लोग ही इंटरनेट का प्रयोग करते हैं। सोशल मीडिया का आगामी चुनाव में कितना प्रभाव पड़ेगा, यह तो आने वाला समय ही बताएगा, पर इतना जरूर है कि इन दोनों ही रिपोट्र्स में राजनीति में सोशल मीडिया के प्रयोग के सच को गहराई से स्वीकार किया गया है। यही वजह है कि आज भारत के कई राजनीतिक दलों ने फेसबुक व टि्वटर पर अपने अकाउंट्स खोल दिए हैं।  आज सोशल मीडिया सामाजिक, शैक्षिक, आर्थिक व राजनीतिक जगत का एक बहुत बड़ा शक्ति केन्द्र बनता जा रहा है। गौरतलब है कि सबसे लोकप्रिय सोशल नेटवर्किग साइट फेसबुक पर नरेन्द्र मोदी ने ममता बनर्जी और एम. करूणानिधि जैसे बहुचर्चित नामों को पछाड़ दिया और पहले स्थान पर पहुंच गए हैं। आज दुनिया में एक अरब से भी अधिक लोग सोशल मीडिया से जुड़े हुए हैं। जहां तक भारत का सवाल है, तो यहां 2010 में इन्टरनेट यूजर्स की जो संख्या सात-आठ करोड़ के करीब थी, वह 2013 में 10-12 करोड़ के करीब पहुंच गई है।
यहां सोशल मीडिया से जुड़े यूजर्स की संख्या भी आठ करोड़ को पार कर गई है। नेल्सन कम्पनी द्वारा किए गए अध्ययन बताते हैं कि भारत में सात-आठ करोड़ से अधिक उपभोक्ता सोशल नेटवर्किग साइट्स से जुड़े हैं। सोशल मीडिया से जुड़े इन यूजर्स का मकसद उस पर केवल निजी बातचीत या मनोरंजन करना ही नहीं है, बल्कि 45 फीसद से भी अधिक यूजर्स सघन राजनीतिक विमर्श भी खुलकर करते हैं। सोशल मीडिया से जुड़ी ये रिपोट्र्स इस बात का संकेत हैैं कि आज के दौर में सोशल मीडिया की अपनी एक हैसियत है, जिससे राजनीति भी अब अछूती नहीं है।

1 comment:

Anonymous said...

ᐈ Rb88, Tethers - THTopBet
rb88 11bet is a provider of mobile, online and live sports betting with the best rb88 odds on football, horse racing and william hill other sports. Join now and get a 50%