Friday 18 July 2014

समाज में मीडिया की भूमिका

समाज में मीडिया की भूमिका

समाज में मीडिया की भूमिका पर बात करने से पहले हमें यह जानना चाहिए कि मीडिया क्या है? मीडिया हमारे चारों ओर मौजूद है, टी.वी. सीरियल व शौ जो हम देखते हैं, संगीत जो हम रेडियों पर सुनते हैं, पत्र एवं पत्रिकाएं जो हम रोज पढ़ते हैं। क्योंकि मीडिया हमारे काफी करीब रहता है। हमारे चारों ओर यह मौजूद होता है। तो निश्चित सी बात है इसका प्रभाव भी हमारे ऊपर और हमारे समाज के ऊपर पड़ेगा ही।

लोकतंत्र के चार स्तंभ माने जाते हैं, विधायिका, कार्यपालिका, न्यायपालिका और पत्रकारिता-यह स्वाभाविक है कि जिस सिंहासन के चार पायों में से एक भी पाया खराब हो जाये तो वह रत्न जटित सिंहिसन भी अपनी आन-बान-शान गंवा देता है।

किसी ने शायद ठीक ही कहा है “जब तोप मुकाबिल हो, तो अखबार निकालो” हमने व हमारे अतीत ने इस बात को सच होते भी देखा है। याद किजिए वो दिन जब देष गुलामी की जंजीरों में जकड़ा हुआ था, तब अंग्रेजी हुकूमत के पांव उखाड़ने देष के अलग-अलग क्षेत्रों में जनता को जागरूक करने के लिये एवं ब्रिटिष हुकूमत की असलियत जनता तक पहुंचाने के लिये कई पत्र-पत्रिकाओं व अखबारों ने लोगों को आजादी के समर में कूद पड़ने एवं भारत माता को आजाद कराने के लिए कई तरह से जोष भरे व समाज के प्रति अपने उत्तरदायित्वों का बाखूबी से निर्वहन भी किया। तब देष के अलग-अलग क्षेत्रों से स्वराज्य, केसरी, काल, पयामे आजादी, युगान्तर, वंदेमातरम, संध्या, प्रताप, भारतमाता, कर्मयोगी, भविष्य, अभ्युदय, चांद जैसे कई ऐसी पत्र-पत्रिकाओं ने सामाजिक सरोकारों के बीच देषभक्ति का पाठ लोगों को पढ़ाया और आजादी की लड़ाई में योगदान देने हेतु हमें जागरूक किया।

अमेरिका के तीसरे राष्ट्रपति थॉमस जेफरसन ने कहा था, ''यदि मुझे कभी यह निश्चित करने के लिए कहा गया कि अखबार और सरकार में से किसी एक को चुनना है तो मैं बिना हिचक यही कहूंगा कि सरकार चाहे न हो, लेकिन अखबारों का अस्तित्व अवश्य रहे।" एक समय था जब अखबार को समाज का दर्पण कहा जाता था समाज में जागरुकता लाने में अखबारों ने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है। यह भूमिका किसी एक देश अथवा क्षेत्र तक सीमित नहीं है, विश्व के तमाम प्रगतिशील विचारों वाले देशों में समाचार पत्रों की महती भूमिका से कोई इंकार नहीं कर सकता। मीडिया में और विशेष तौर पर प्रिंट मीडिया में जनमत बनाने की अद्भुत शक्ति होती है। नीति निर्धारण में जनता की राय जानने में और नीति निर्धारकों तक जनता की बात पहुंचाने में समाचार पत्र एक सेतु की तरह काम करते हैं। समाज पर समाचार पत्रों का प्रभाव जानने के लिए हमें एक दृष्टि अपने इतिहास पर डालनी चाहिए। लोकमान्य तिलक, महात्मा गाँधी और पं. नेहरू जैसे स्वतंत्रता सेनानियों ने अखबारों को अपनी लड़ाई का एक महत्वपूर्ण हथियार बनाया। आजादी के संघर्ष में भारतीय समाज को एकजुट करने में समाचार पत्रों की विशेष भूमिका थी। यह भूमिका इतनी प्रभावशाली हो गई थी कि अंग्रेजों ने प्रेस के दमन के लिए हरसंभव कदम उठाए। स्वतंत्रता के पश्चात लोकतांत्रिक मूल्यों की रक्षा और वकालत करने में अखबार अग्रणी रहे। आज मीडिया अखबारों तक सीमित नहीं है परंतु इलेक्ट्रॉनिक मीडिया और वेब मीडिया की तुलना में प्रिंट मीडिया की पहुंच और विश्वसनीयता कहीं अधिक है। प्रिंट मीडिया का महत्व इस बात से और बढ़ जाता है कि आप छपी हुई बातों को संदर्भ के रूप में इस्तेमाल कर सकते हैं और उनका अध्ययन भी कर सकते हैं। ऐसे में प्रिंट मीडिया की जिम्मेदारी भी निश्चित रूप से बढ़ जाती है।

अपनी शुरूआत के दिनों में पत्रकारिता हमारे देष में एक मिषन के रूप में जन्मी थी। जिसका उद्ेष्य सामाजिक चेतना को और अधिक जागरूक करने का था, तब देष में गणेष शंकर विद्यार्थी जैसे युवाओं की सामाजिक, सांस्कृतिक एवं राजनीतिक आजादी के लिये संघर्षमयी पत्रकारिता को देखा गया, कल के पत्रकारों को न यातनाएं विचलित कर पाती थीं, न धमकियां। आर्थिक कष्टों में भी उनकी कलम कांपती नहीं थी, बल्कि दुगुनी जोष के साथ अंग्रेजों के खिलाफ आग उगलती थी, स्वाधीनता की पृष्ठ भूमि पर संघर्ष करने वाले और देष की आजादी के लिये लोगों मंे अहिंसा का अलख जगाने वाले महात्मा गांधी स्वयं एक अच्छे लेखक व कलमकार थे। महामना मालवीय जी ने भी अपनी कलम से जनता को जगाने का कार्य किया। तब पत्रकारिता के मायने थे देष की आजादी और फिर आजादी के बाद देष की समस्याओं के निराकरण को लेकर अंतिम दम तक संघर्ष करना और कलम की धार को अंतिम दम तक तेज रखना। जब हमारा देश पराधीनता की बेडिय़ों में जकड़ा हुआ था उस समय देश में इने-गिने सरकार समर्थक अखबार थे जो सरकारी धन को स्वीकार करते रहते थे। अंक प्रति आय जनता में भी अच्छी भावना नही थी। इन दिनों उन पत्रों को अधिक लोकप्रियता मिली जो राष्ट्रीय विचारधाना के थे और जनता में राष्ट्रीय चेतना पैदा करने के लिए प्रयत्नशील थे।

दरअसल वह एक जुनून है। सच्चा पत्रकार बिना अपने परिवार, धन एवं ऐश्वर्य की परवाह किये बिना मर-मिटने को तैयार रहता है। उसे कोई डिगा नहीं सकता। पूंजपति, सरकार व सामाजिक दीवारों, बंधनों को फांद कर वह अपने उद्देश्य की पूर्ति अब भी करता है। पत्रकारिता एक समर्पित दृष्टि और जीवन पद्धति है, कोई व्यक्ति विशेष या खिलवाड़ नहीं है। यह समर्पित दृष्टि तथा जीवन पद्धति जिसमें होती है, वही सच्चा पत्रकार है।

देश की स्वतंत्रता के बाद सामाजिक, राजनीतिक और आर्थिक ढांचे में जहां बुनियादी परिवर्तन आये, वहीं पत्रकारिता के क्षेत्र में भी व्यापक बदलाव आया। इसने एक प्रच्छन्न उद्योग का स्वरूप ग्रहण कर लिया। जिसके कारण उद्योगों की समस्त अच्छाईयों के साथ इसको विकृतियां भी पत्रकारिता में आने लगीं। इस तरह निष्पक्ष पत्रकारिता का पूरा आदर्श और ढांचा ही चरमराने लगा।

समाचारपत्र किसी कारखाने के उत्पाद नहीं होते हैं लेकिन पिछले एक दशक से उन्हें एक उत्पाद भर बनाये जाने की साजिश की जा रही है। अखवारों के पन्ने रंगीन होते जा रहे हैं और उनमें विचार-शून्यता साफ झलकती है। समाचारपत्रों में न सिर्फ विचारों का अभाव है बल्कि उसके विपरीत उन्हें फिल्मों, लजीज व्यंजन और सेक्स संबंधित ऐसी तमाम सामग्री बहुतायत में परोसी जाने लगी है जो मनुष्य के जीवन में पहले बहुत अहम स्थान नहीं रखती थीं। यानी समाचारपत्रों के माध्यम से एक ऐसी काल्पनिक दुनिया का निर्माण किया जा रहा है जिसका देश की ९० प्रतिशत से अधिक जनता का कोई सरोकार नहीं है। लेकिन चूंकि ऐसी खबरों को प्रमोट और स्पांसर करने वालों की भीड़े है और अखबार को विज्ञज्ञपन चाहिए जिसके बिना विचार भी पाठकों तक नहीं पहुंच सके हैं, इसलिए अखबारों को उनके सामने सिर झुकाने के अलावा कोई विकल्प नहीं बचता है।

जब भी मीडिया और समाज की बात की जाती है तो मीडिया को समाज में जागरूकता पैदा करने वाले एक साधन के रूप में देखा जाता है, जो की लोगों को सही व गलत करने की दिषा में एक प्रेरक का कार्य करता नज़र आता है। जहां कहीं भी अन्याय है, शोषण है, अत्याचार, भ्रष्टाचार और छलना है उसे जनहित में उजागर करना पत्रकारिता का मर्म और धर्म है। हर ओर से निराश व्यक्ति अखबार की तरफ आता है। अखबार ही उनकी अन्धकारमय जिन्दगी में उम्मीद की आखिरी किरण है। अखबारों को पीडि़तों का सहारा बनना चाहिए। समाचारपत्र जगत की यह तस्वीर आम पाठक देखता है। यहां यह कहना असंगत नहीं होगा कि अखबार अपनी जिस जिम्मेदारी का निर्वाह कर रहे हैं वह अति सीमित है। वास्तव में हमने हाथी की पूंछ को अपने सिर पर रखकर यह मान लिया है कि हमने पूरा हाथी ही उठा लिया है।

 युग चेतना ही पत्रकारिता का समृद्ध करती है। समाज, राष्ट के सामने जो विषम स्थितियां हैं उनका सम्यक विवेचन प्रस्तुत करके आम सहमति के विन्दु तक पहुंचने में पत्रकार और समाचार पत्र एक मंत्र प्रस्तुत करते हैं। युगीन समस्याओं, आशाओं और आकांक्षाओं पर मनन-चिंतन करके पत्रकार-समाचार पत्र आमजन में संतुलित चिंतन-चेतना, रचनात्मक विकास करते हैं। पत्रकार घटनाओं का मानवीय संस्करण प्रस्तुत करता है। उसे पूर्वाग्रहों से मुक्त हो कर कार्य करना होता है। उसकी प्रतिबद्धता समाचारों से है। एक चिकित्सक की भांति वह घटनाओं की नाड़ी पकड़ता है, फिर उसका निदान भी बताया है। पत्रकारिता जन-जन को जोडऩे का काम करती है। समाज के विभिन्न वर्गों में आपसी समझ के भाव को विकसित करते हुए एक मेल-जोल की संस्कृति के विकास में सहायक बनती है। जो पत्र और पत्रकार इसके विपरीत कार्य करते हैं उन्हें आप पीत पत्रकारिता करने वालों की श्रेणी में डाल सकते हैं।

मीडिया व पुलिस के उद्देश्य दरअसल जनहित ही हैं। ऐसे में पारदर्शिता और प्रोफेशलिज्म से सही लक्ष्य पाए जा सकते हैं। मीडिया समाज की आवाज शासन तक पहुंचाने में उसका प्रतिनिधि बनता है। अब सवाल यह उठता है कि वाकई मीडिया अथवा प्रेस जनता की आवाज हैं। आखिर वे जनता किसे मानते हैं? उनके लिए शोषितों की आवाज उठाना ज्यादा महत्वपूर्ण है अथवा क्रिकेट की रिर्पोटिंग करना, आम आदमी के मुद्दे बड़े हैं अथवा किसी सेलिब्रिटी की निजी जिंदगी ? आज की पत्रकारिता इस दौर से गुजर रही है जब उसकी प्रतिबद्धता पर प्रश्रचिन्ह लग रहे हैं। समय के साथ मीडिया के स्वरूप और मिशन में काफी परिवर्तन हुआ है। अब गंभीर मुद्दों के लिए मीडिया में जगह घटी है। अखबार का मुखपृष्ठ अमूमन राजनेताओं की बयानबाजी, घोटालों, क्रिकेट मैचों अथवा बाजार के उतार-चढ़ाव को ही मुख्य रूप से स्थान देता है। जिस पेज पर कल तक खोजी पत्रकारों के द्वारा ग्रामीण पृष्ठभूमि की समस्या, ग्रामीणों की राय व गांव की चौपाल प्रमुखता से छापी जाती थी, वहीं आज फिल्मी तरानों की अर्द्धनग्न तस्वीरें नज़र आती हैं। आप दिल्ली जैसे शहरों में ही देख लीजिए। चाहे आप मेट्रो में यात्रा कर रहें हो या दिल्ली परिवहन निगम की बसों में या अपने वाहन से। लड़कियां कहीं भी सुरक्षित नहीं है। उस पर मीडिया ऐसे मामलों को इस तरह से उठाता है जैसे कोई फिल्मी मसाला हो। उसे बस अपने टीआरपी की चिंता रहती है। महिलाओं/लड़कियों/बच्चियों के साथ हो रहे दुर्व्यवहार को मीडिया में उछालने की प्रवृति पर अंकुश लगाए जाना चाहिए। हां, यह सही है कि बगैर मीडिया में ख़बर आए कोई कार्यवायी भी नहीं होती है लेकिन ऐसे मामले पर मीडिया कर्मी खासकर टेलीविजन में एक बहस का दौर चल पड़ता है उसे लगता है कि टीआरपी बढ़ाने का इससे बेहतर मौका और कोई नहीं हो सकता है और वो ऐसे मौकों को हाथ से जाने नहीं देना चाहती है। इस तरह की प्रवृति पर मीडिया को लगाम लगाने की सोचनी चाहिए। अपनी टीआरपी के लिए किसी की आबरू से खेलना अच्छी बात नहीं है।

  आधुनिकता व वैष्वीकरण के इस दौर में इन पत्र-पत्रिकाओं व नामी-गिरामी न्यूज चैनलों को ग्रामीण परिवेष से लाभ नहीं हो पाता और सरोकार भी नहीं है। इसलिए वे धीरे-धीरे इससे दूर भाग रहे हैं और औद्योगीकरण के इस दौर में पत्रकारिता ने भी सामाजिक सरोकारों को भुलाते हुए उद्योग का रूप ले लिया है।   गंभीर से गंभीर मुद्दे अंदर के पृष्ठों पर लिए जाते हैं तथा कई बार तो सिरे से गायब रहते हैं । समाचारों के रूप में कई समस्याएं जगह तो पा लेती हैं परंतु उन पर गंभीर विमर्श के लिए पृष्ठों की कमी हो जाती है। मीडिया की तटस्थता स्वस्थ लोकतंत्र के लिए अत्यंत घातक है।

मीडिया और सरकार के बीच के रिश्ते हमेशा अच्छे नहीं हो सकते क्योंकि मीडिया का काम ही है सरकारी कामकाज पर नज़र रखना. लेकिन वह सरकार को लोगों की समस्याओं, उनकी भावनाओं और उनकी मांगों से भी अवगत कराने का काम करता है और यह मौक़ा उपलब्ध कराता है कि सरकार जनभावनाओं के अनुरूप काम करे.

आज के इस दौर में पत्रकारिता कहां पर है और आमजनों को उनकी समस्या का हल कौन देगा यह बताने वाली पत्रकारिता अपने आप से आज यह सवाल पूछ रही है कि मैं कौन हूँ? आज देष आतंकवाद, नक्सलवाद जैसी गंभीर समस्याओं से जूझ रहा है, लेकिन इससे निपटने के लिये आमजनों को क्या करना चाहिए, सरकार की क्या भूमिका हो सकती है, सहित कई मुद्दों पर मीडिया आज मौन रूख अख्तियार किये हुये है। लेकिन वहीं दूसरी ओर आतंकी गतिविधियों से लेकर नक्सली क्रूरता को लाइव दिखाने में भी यह मीडिया पीछे नहीं है, यहां तक की आज सर्वप्रथम किसी खबर को दिखाने की होड़ में मीडिया के समक्ष आतंकी व नक्सली हमला के तुरंत बाद ही हमला करने वाले कमाण्डर व अन्य आरोपियों के फोन व ई-मेल तक आ जाते हैं। गौर करने वाली बात यह है कि बार-बार व प्रतिदिन इस समाचार को दिखाने व छापने से फायदा किसका होता है, आमजनता का, पुलिस का, नक्सली व आतंकी का या फिर मीडिया घरानों का। निष्चित रूप से इसका फायदा मीडिया व इन देषद्रोही तत्वों (आतंकी व नक्सली) को होता है, जिन्हें बिना किसी कारण से बढ़ावा मिलता है, क्यांेकि बार-बार इनको प्रदर्षित करने से आमजनों व बच्चों में संबंधित लोगों के खिलाफ खौफ उत्पन्न हो जाता है और ये असामाजिक तत्व चाहते भी यही हैं। इसलिये आज जरूरी है कि मीडिया और इसको चलाने वाले ठेकेदारों को यह तय करना होगा, कि मीडिया ने सामाजिक सरोकारों को दूर करने में कितनी कामयाबी हासिल की है, यह उन्हें खुद ही देखना व समझना होगा। ऐसा भी नहीं है कि मीडिया ने सामाजिक सरोकारों को एकदम से अलग कर दिया है लेकिन लगातार मीडिया की भूमिका कई मामलों में संदिग्ध सी लगती है। कई विषयों जहां पर उन्हें न्याय दिलाने की जरूरत होती है एवं लोगों को मीडिया से यह अपेक्षा होती है, कि मीडिया के द्वारा उनकी मांगों व समस्याओं पर विषेष ध्यान देते हुए समस्या का समाधान किया जायेगा, ऐसे कई मौकों पर मीडिया की भूमिका से लोगों को काफी असहज सा महसूस होता है। कभी-कभी तो ऐसा भी महसूस किया जाता है कि कुछ मीडिया घराना मात्र किसी एक व्यक्ति, पार्टी व संस्था के लिये ही कार्य कर रही है, अतः मीडिया को एक बार फिर से ठीक उसी तरह निष्पक्ष होना पड़ेगा, जिस तरह की आजादी के पहले व अभी कुछ आंदोलनों में जनता के साथ देखा गया।


इलेक्ट्रॉनिक मीडिया में ब्रेकिंग न्यूज की होड़ में यह अनुमान लगाना कठिन हो जाता है कि सच्चाई क्या है। आज प्रिंट मीडिया को इलेक्ट्रॉनिक मीडिया से तगड़ी प्रतिस्पर्धा का सामना करना पड़ रहा है। इलेक्ट्रॉनिक मीडिया अपने स्वरूप और सामथ्र्य की वजह से दर्शकों को 24 घंटे उपलब्ध है। टीआरपी की चाह में टीवी न्यूज चैनल सिर्फ गंभीर विमर्शों तक सीमित नहीं हैं अपितु वे फिल्मी चकाचौंध, सास-बहू के किस्सों, क्रिकेट की दुनिया के अलावा अंधविश्वासों तक को अपने प्रोग्राम में काफी स्थान देते हैं। ऐसे में प्रिंट मीडिया का भी स्वरूप बदलने लगा है और अखबारों के पन्ने भी झकझोरने के बजाय गुदगुदाने का काम करने लगे हैं। एक ओर समाचार-पत्र के परिशिष्ट टी.वी. के समान ही सामग्री देने लगे हैं, वहीं दूसरी ओर, समाचार पत्रों की साख में भी उतार आ गया। साख आज मुद्दा ही नहीं रह गया लगता है। आज तो किसी भी तरह व्यापार होना चाहिए। चटपटी सामग्री की उपयोगिता का प्रश्न समाप्त-सा होने लगा है। इससे बड़े-बड़े समाचार-पत्रों की प्रभावशीलता घटने लगी। सामाजिक मुद्दों को उठाने की चिन्ता घट गई। आज अंगे्रजी के अखबारों में भारतीयता को ढूंढ लें। इस परिवर्तन का श्रेय चूंकि इलेक्ट्रानिक्स मीडिया को है, सइी से इस दौर की शुरूआत हुई है, अत: स्वयं मीडिया भी इतना बदल गया है कि लोकतंत्र का चौथा पाया हिलता हुआ नजर आने लगा है।
 मीडिया मालिकों की पूंजीवादी सोच के अलावा पत्रकारों की तैयारी भी एक बड़ा मसला है। एक समय था जब पत्रकार होना सम्मानजनक माना जाता था। बड़े-बड़े साहित्यकारों ने पत्रकारिता के क्षेत्र में भी अपनी लेखनी के झंडे गाड़े। प्रेमचंद, माखनलाल चतुर्वेदी, महादेवी वर्मा से लेकर अज्ञेय, धर्मवीर भारती, कमलेश्वर आदि दिग्गज साहित्यकारों ने एक पत्रकार के रूप में भी सामाजिक बोध जगाने के अपने दायित्व का निर्वहन किया और राजनैतिक पत्रकारिता से ज्यादा रुचि मानवीय पत्रकारिता में दिखाई। कहने का तात्पर्य यह है कि उस दौर के पत्रकारों में विषय की, समाज की गहरी समझ थी, उसे लेखन रूप में प्रस्तुत करने के लिए भाषा और भावना थी तथा सामाजिक प्रतिबद्धता थी। आज ये गुण कहीं खो से गए हैं। निजी हितों का दबाव इतना बढ़ गया है कि पत्रकारों की प्रतिबद्धता पल-पल बदलती रहती है। अपने कार्य के प्रति समर्पण में भी कमी नजर आती है। कहीं वे घटनास्थल तक पहुंच नहीं बना पाते तो कई बार उन्हें घटनाओं को सही परिप्रेक्ष्य में समझना नहीं आता तो कई बार भाषा के गलत इस्तेमाल से समाचार का भाव ही बदल जाता है।

खबरों में नमक-मिर्च लगाकर पेश करना और उसे चटखारेदार बनाने के प्रयासों में पत्रकारिता भटक जाती है। पुलिस जहां तथ्यों को दबाने के प्रयासों में होती है वहीं पत्रकार की कोशिश चीजों को अतिरंजित करके देखने की होती है, जबकि दोनों गलत है। आज भी पुलिस को देखकर समाज में भय व्याप्त होता है। इस छवि को बदलने की जरूरत है। मीडिया इसमें बडी भूमिका निभा सकता है। पत्रकारिता की भूमिका मानवाधिकारों तथा लोकतंत्र की रक्षा के लिए बहुत महत्व की है। यह एक कठिन काम है। पारदर्शिता को पुलिस तंत्र पसंद नहीं करता पर बदलते समय में हमें मीडिया के सवालों के जबाव देने ही होंगें। आज जबकि समूचे प्रशासनिक, राजनीतिक तंत्र से लोगों की आस्था उठ रही है तो इसे बचाने की जरूरत है। सुशासन के सवाल आज महत्वपूर्ण हो उठे हैं। ऐसे में सकारात्मक वातावरण बनाने की जरूरत है।

आधी अधूरी तैयारी व सतही समझ से मुद्दे कमजोर पड़ जाते हैं और उनके समाधान की राह कठिन हो जाती है। यदि मीडिया को समाज को राह दिखानी है तो स्वयं उसे सही राह पर चलना होगा । एक सफल लोकतंत्र वही होता है जहां जनता जागरुक होती है। अत: सुशासन के लिए मीडिया का कर्तव्य बनता है कि वह लोगों का पथ प्रदर्शन करे। उन्हें सच्चाई का आइना दिखाए और सरकार को जनता के प्रति जवाबदेह बनाए। अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता जो हमारा मूल मानवाधिकार है, वह सिर्फ भाषण देने तक सीमित नहीं है बल्कि उसका उद्देश्य समाज में उचित न्याय का साम्राज्य स्थापित करना होना चाहिए। इसके लिए आवश्यक है कि हर कीमत पर हर व्यक्ति के मानवाधिकारों की रक्षा की जाए और उनका सम्मान किया जाए। मानवाधिकारों की रक्षा के लिए सामाजिक बोध जगाने में प्रिंट मीडिया की स्वतंत्रता इसी से सार्थक होगी ।

संविधान में उल्लेखित मौलिक अधिकार मोटे तौर पर मानवाधिकार ही हैं। हर व्यक्ति को स्वतंत्रता व सम्मान के साथ जीने का अधिकार है चाहे वह किसी भी धर्म, जाति, वर्ग का क्यों न हो। लोकतंत्र में मानवाधिकार का दायरा अत्यंत विशाल है। राजनैतिक स्वतंत्रता, शिक्षा का अधिकार, महिलाओं के अधिकार, बाल अधिकार, निशक्तों के अधिकार, आदिम जातियों के अधिकार, दलितों के अधिकार जैसी अनेक श्रेणियां मानवाधिकार में समाहित हैं। यदि गौर किया जाए तो कुछ ऐसी ही विषयवस्तु पत्रकारिता की भी है। पत्रकारों के लिए भी मोटे तौर पर ये संवेदनशील मुद्दे ही उनकी रिपोर्ट का स्रोत बनते हैं।  भारत जैसे देश में जहां गरीबी व अज्ञानता ने समाज के एक बड़े हिस्से को अंधकार में रखा है, वहां मानवाधिकारों के बारे में जागरुकता जगाने में, उनकी रक्षा में तथा आम आदमी को सचेत करने में अखबार समाज की मदद करते हैं। आम आदमी को उसके अधिकारों के बारे में शिक्षित करने में मीडिया निश्चित रूप से महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है। सूचना के प्रचार-प्रसार से लेकर आम राय बनाने तक में मीडिया अपने कर्तव्य का भली-भांति वहन करता है। एक विकासशील देश में जहां मानवाधिकारों का दायरा व्यापक है, वहां मीडिया के सहयोग के बिना सामाजिक बोध जगाना लगभग असंभव है।

मीडिया ट्रायल -- ऐसी प्रवृत्तियां मीडिया की विश्वसनीयता पर सवाल खड़े करती हैं। अपराध और अपराधीकरण को ग्लैमराइज्ड करना कहीं से उचित नहीं कहा जा सकता है।


भोपाल। माखनलाल चतुर्वेदी राष्ट्रीय पत्रकारिता एवं संचार विश्वविद्यालय, भोपाल के तत्वाधान में ‘पुलिस और मीडिया में संवाद’ विषय पर आयोजित संगोष्ठी का निष्कर्ष है कि पुलिस को मीडिया से संवाद के लिए प्रशिक्षण दिया जाए तथा पत्रकारों के लिए भी पुलिस से बातचीत करने और अपनी रिर्पोटिंग के दिशा निर्देश तय करने की जरूरत है। इससे ही सही मायने में दोनों वर्ग एक दूसरे के पूरक बन सकेंगें और लोकतंत्र मजबूत होगा। ऐसे संवाद से रिश्तों की नयी व्याख्या तो होगी ही साथ ही काम करने के लिए नए रास्ते बनेंगें। कोई भी रिश्ता संवाद से ही बनता और विकसित होता है। समाज के दो मुख्य अंग मीडिया और पुलिस अलग-अलग छोरों पर खड़े दिखें यह ठीक नहीं है।हमें सामूहिक उद्देश्यों की पूर्ति एवं सहायता के लिए आगे आना होगा। मीडिया और पुलिस एक दूसरे की विरोधी भूमिका में दिखते हैं। खबरों को प्लांट करना भी हमारे सामने एक बड़ा खतरा है।  हमारे रिश्ते दरअसल हिप्पोक्रेसी पर आधारित हैं। पुलिस छिपाती है और पत्रकार कुछ अलग छापते हैं। इसमें विश्वसनीयता का संकट बड़ा हो गया है।

अगर लोकतंत्र और हजारों सालों की विकसित एवं प्रशस्त परंपराओं वाले देश को बचाना है तो प्रहरी का अधिक अधिकार सम्पन्न और अधिक सुविधाओं से युक्त करना पड़ेगा। साथ में ऐसी प्रणाली भी विकसित करनी पड़ेगी जिससे मीडिया में प्रतिभा सम्पन्न और समाज एवं देश के प्रति निष्ठावान लोग ही प्रवेश पा सकें। पत्रकारिता में प्रवेश के लिए भी राष्ट्रीय स्तर, प्रदेश स्तर या फिर जिला स्तर पर प्रवेश परीक्षाएं आयोजित की जा सकती हैं ताकि चाटुकार और राजनैतिक रूप से प्रतिबद्ध लोग मीडिया के प्रवेश द्वारा को न लांघ सकें। वर्तमान स्थितियों में यह कहना असंगत न होगा कि आज मीडिया जगत में प्रवेश और प्रोन्नति का इकलौता तरीका अपने स्वाभिमान और ज्ञान को ताक पर रखकर अखबार के स्वामी या स्थानीय प्रमुख का दरबारी बनना भर है। क्या ऐसी नारकीय स्थितियों में काम करने के बाद हम किसी गणेश शंकर विद्यार्थी, महामना मालवीय, सी.वाई. चिंतामणि, बाबूराव, विष्णु पराड़कर, डॉ. सम्पूर्णानंद या विद्याभास्कर के पैदा होने की कल्पना कर सकते हैं? इन स्थितियों के लिए कौन जिम्मेदार है?

मीडिया ने हमारे समाज को हर क्षेत्र में प्रभावित किया है, यदि मीडिया समाज के प्रति अपनी जिम्मेदारी को समझते हुए सत्य की राह पर है तो उस समाज और राष्ट्र का कोई बाल भी बांका नहीं कर सकता है, लेकिन अगर दुर्भाग्यवश मीडिया ने समाज के प्रति अपनी जिम्मेदारी को नजर अंदाज करते हुए असत्य की राह पकड़ ली तो समाज व राष्ट का नाश तय है। मीडिया के दुरूपयोग को आमिर खान ने अपनी फिल्म 'पीपली लाईवÓ में काफी करीब से दिखाया गया है।

प्रेस की स्वतंत्रता सिर्फ उसके मालिक, संपादक और पत्रकारों की निजी व व्यवसायिक स्वतंत्रता तक सीमित नहीं होती बल्कि यह उसके पाठकों की सूचना पाने की स्वतंत्रता और समाज को जागरुक होने के अधिकार को भी अपने में समाहित करती है। प्रेस का सबसे बड़ा कर्तव्य समाज को जागरुक करना होता है।

पत्रकार संगठनों ने पत्रकारिता का वजूद बचाये रखने की दिशा में जो थोड़ी-बहुत कोशिशें जारी रखी हैं उनकी आवाज नक्कारखाने में तूती की आवाज ही बनकर रह गई है। दरअसल पत्रकार संगठनों के मुखिया अधिकतर सेवानिवृत्त होते हैं और उनके संपादक्त्व में निकलने वाले अखबार उनकी मौजूदगी में ही उन बीमारियों से ग्रस्त होते गए हैं और अपनी बात मनवाने की कोशिश में उन्हें नौकरी से हाथ धोना पड़ा था।

13 comments:

Anonymous said...

aapne ke is articles se sach me mjhe media or samaj ko samjhne me bhuhat madad mili ... thank you so much

blacklight said...

wtf

Unknown said...

Nice

Unknown said...

O yeah..it is very helpful essay...very deep essay on the topic...carry on..


Unknown said...

well done

Unknown said...

Very good sir

Unknown said...

Very good

Unknown said...

nice sir you r great

Unknown said...

Nice

Unknown said...

Nice

Unknown said...

Nice

Unknown said...

Very good and thank you

Unknown said...

Very good